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________________ १३६ जैनधर्म की कहानियाँ रानियों की तथा आपकी चर्चा सुनकर मैंने चौर्य कर्म का त्याग कर दिया है। अब तो मेरी भावना मात्र इतनी ही है कि एक बार मुझे कुमार से मिला दीजिए, मैं अवश्य ही उन्हें समझाकर घर में रहने को तैयार कर दूंगा, मेरे पास ऐसी विद्या है।" माता जिनमति तो यह चाहती ही थी कि किसी भी प्रकार से पुत्र घर में रह जाये। उन्होंने तुरन्त जम्बूकुमार के पास जाकर एक युक्ति बनाई - "हे पुत्र! तुम्हारे मामा, जो कि बहुत दिनों से परदेश गए हुए थे, आज वे आये हुए हैं और तुमसे मिलना चाहते हैं।" मुक्तिकांता के अभिलाषी कुमार उदासचित्त से मामाजी के पास पहुँचे और बोले - “हे मातुल प्रणाम।" तभी मामा (बने विद्युच्चर) ने अत्यंत स्नेहमयी दृष्टि डालते हुए एवं कुमार को हृदय से लगाते हुए कहा - "हे कुमार! हे बेटे ! आपने श्री वीरप्रभु की दिव्य देशना तो सुनी ही है। उसमें दो प्रकार के धर्म का वर्णन आया है। एक गृहस्थ-धर्म और दूसरा मुनि-धर्म, तो तुम गृहस्थ-धर्म का पालन क्यों नहीं करते हो? मुनि-धर्म तो बहुत कठोर है, उसे पालना बहुत कठिन है और फिर तुम्हारी इतनी लघुवय है, कोमल शरीर है, तुम इतना कठोर कदम क्यों उठाते हो? अभी तो तुम्हारी आयु भी बहुत बाकी है। जब आपकी वृद्धावस्था आ जाये तब आत्म-हित करना, आत्म-साधना करना, महा कठोर मुनि-धर्म की साधना करना। आपको कोई मना नहीं करेगा, परन्तु अभी तो गृहस्थ-धर्म का पालन करो।" तब जम्बूकुमार अत्यन्त मृदु शब्दों में बोले - “हे मातुल! आप बहुत दिनों बाद मुझसे मिले हो और वह भी ऐसे प्रसंग में, इसलिए अत्यंत स्नेह की वर्षा मेरे ऊपर होना स्वाभाविक ही है; परन्तु हे मातुल! आप तत्वानुरागी हैं, अध्ययनशील हैं, जिनदेशना एवं उसके मर्म के आप जानकार हैं कि मार्ग तो एक ही प्रकार का है, परन्तु संसारी जीवों की दशा को देखकर उसका निरूपण दो प्रकार से किया गया है। जो जीव असमर्थ हैं, शारीरिक बल से कमजोर हैं, जिनके परिणाम अभी स्थिर होने में असमर्थ हैं और जो विषय-भोगों में रचे-पचे हैं; उन जीवों को आत्म-हित के साधन
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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