________________
श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१२७ ही है, परन्तु अभी हमको रागादि विकल्प बहुत उठते हैं। हम वन-खण्डादि में बिना आत्माभ्यास के कैसे जा सकती हैं? और आपके बिना महलों में भी कैसे रह सकती हैं?
तब कुमार सावधान चित्त होकर बोले - "अनादि से इस जीव को रागादि के उत्पन्न होने की ही चिन्ता है। क्या तुमने श्री वीरप्रभु की दिव्यदेशना नहीं सुनी है कि 'मेरे आत्मस्वभाव में विभाव असत् होने से मुझे उसकी चिन्ता नहीं है, समस्त परद्रव्यों और नाना प्रकार के विभाव भावों की मुझे चिन्ता ही नहीं है, क्योंकि वे रागादि उत्पन्न होने पर भी भिन्न ही हैं और मैं ज्ञानानंदमयी सत्ता उनसे भिन्न ही हूँ।' इसप्रकार रागादि की चिंता करना व्यर्थ ही है। और फिर थोड़े से विकल्पों से भयभीत होकर विकल्पों के समुद्ररूप गृहस्थी में कूदना तो महा अपराध है। ये तो ऐसा हुआ कि कोई व्यक्ति थोड़े पानी में डूबने से डरकर उससे बचने के लिए समुद्र में ही कूद जाये। नहीं, नहीं, ये तो शोभा नहीं देता।"
इसप्रकार शुद्धाचरणमय जम्बूकुमार ने सभी पत्नियों को समाधान करते हुए सन्तुष्ट कर दिया, परन्तु इसी बीच विह्वल होती हुई, आकुलित चित्त वाली रूपश्री बोली - "परन्तु स्वामी गृहस्थी में रहना कोई अपराध थोड़े ही है।"
तब कुमार बोले - "हे भद्रे! धन्य वे नही हैं, जिन्हें गृहस्थी बसानी पड़े; अपितु धन्य वे हैं, जिन्हें गृहस्थी की आवश्यकता ही न हो। आत्महित का एकमात्र मार्ग तो सकल संयम है। यदि हमारे सिर पर पवित्र जिन-शासन है, तत्त्व-प्रतीति है, कषाय भंद है, परिणाम निर्मल हैं तो हमें गृहस्थी से क्या प्रयोजन है? पंचेन्द्रिय के विषयों में आनंद मानने वाले तो ठीक ऐसे हैं, जैसे कोई पुरुष गर्मी से आतापित - दुखित होकर उबलते हुए पानी के कूप में कूदकर शीतलता का अनुभव कर अपने को सुखी माने। अरे रे! ऐसे दुःखमयी भोग स्याज्य ही हैं, घृणा करने लायक हैं।"
लब विनयश्री ओली • “हे नीतिज्ञ पुरुष! आज ही तो आपने हम सबके साथ पवित्र जिनशासन के प्रवर्तक पंच-परमेष्ठी एवं श्रमण-संस्कृति की साक्षी में पाणिग्रहण किया है, वहाँ आपने जीवनपर्यंत हमारे संरक्षण