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जैनधर्म की कहानियाँ का बल है और तुम सभी यह श्रद्धान रखती हो कि हम अपना हित करने में समर्थ हैं तो तुम्हें एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। रही बात विषय-भोगों की, गृहस्थी में रहने की तो महापुरुष कहते हैं -
कीचड़ को लगाकर धोना क्या ?
कूद अग्नि में रोना क्या? अत: मैं तो अवश्य ही प्रात:काल जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगा।
तब विनयश्री बोली - “हे नाथ! आपका कहना सचमुच ही ठीक है, परन्तु अभी तक हम सभी के इन अत्यन्त कोमलांगों ने समस्त इन्द्रियों की अनुकूलता भोगी है और प्रचुर आत्म-साधना करना तो अत्यन्त दुर्धर कार्य है, हम अभी आपके साथ वन-खण्डादि में जाकर कठोर तप कैसे कर सकती हैं? अत: हम धीरे-धीरे अणुव्रत को धारण कर आत्माभ्यास करेंगी, फिर हम आपके साथ-साथ दीक्षा धारण कर सकेंगी, तब तक तो आपका रुकना उचित ही है।"
तब कुमार बोले - “हे बुद्धिमते ! भले ही तुम्हारा कहना उचित है, लेकिन समुचित नहीं है। सीताजी एवं अंजनाजी ने कहाँ धीरे-धीरे अभ्यास किया था? यह बात सत्य है कि दर्शनमोह एकसाथ जाता है एवं चारित्रमोह क्रम-क्रम से जाता है, परन्तु सुकुमालजी ने कहाँ धीरे-धीरे अभ्यास किया था ? फिर भी आत्मस्वरूप में सावधान होकर अकम्प तप को तपा था। इसलिये जिनके परिणाम निर्मल न हुए हों, जिनका भव-भय-भीरु चित्त न हो, वे कदाचित् धीरे-धीरे आत्माभ्यास करें तो भले करें, परन्तु मेरा चित्त तो अब एक क्षणमात्र भी रुकने के लिए तैयार नहीं है। अरे रे! धिक्कार है ऐसे भोगों को कि जिनका फल नरक-निगोद है।"
तब विनयश्री बोली - "हे चरमशरीरी, तद्भव मोक्षगामी जीवराज! आपकी इसी भव में मुक्ति तो नियम से होने ही वाली है, फिर आपको कुछ समय और रुकने में क्या आपत्ति है? कोई पर-पदार्थ या हम आपके हित में बाधक तो हैं नहीं, संयोग तो कुछ जबरन संयोगी भाव कराते नहीं, फिर संयोगों से बचने की इतनी प्रबल भावना क्यों?"