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श्री जम्बूस्वामी चरित्र को आत्मसात् करना चाहती हैं। हम सब भी एक दिन सिद्ध-शिला के अधिकारी हों। हे नाथ! हम सभी प्रमुदित चित्त से आपके चरणारविन्द का दासत्व स्वीकार करती हैं। हमें अंगीकार करके कृतार्थ कीजिए।"
तब विरक्त-चित्त कुमार बोले - "हे भद्रो! हे भव्यों! आप सभी के विरक्त-चित्त एवं आत्म-साधना के परिणामों को देखकर मुझें अत्यन्त प्रसन्नता हुई है। मैं आप सभी के मंगलमयी परिणामों की अनुमोदना करता हूँ। आप चारों धन्य हो कि जगत में जिससमय विषय-भोगों एवं राग-रंग की वार्ता चलती है, उस अवसर में भी तुम्हारा चित्त अध्यात्म चर्चा को चाहता है, आत्महित की बात सोचता है। निश्चित ही तुम सभी निकट भव्य हो। तुम सभी की मंगल भावना को जानकर मुझे भी अपनी विरक्त परिणति के बारे में बतलाते हुए प्रमोद होता है कि मेरा परिणाम भी इन विषय-भोगों एवं संसार के दुःखों से उदास है और मैं प्रात:काल की पावन बेला में ही पूज्य श्री सुधर्माचार्यजी के चरणारविन्द में जाकर पावन जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगा। मैं समझता हूँ कि तुम सब भी इसे जानकर प्रसन्न होगी, हमारे इस परिणाम की अनुमोदना करोगी एवं स्वयं भी आत्महित में लगोगी।"
कुमार के इसप्रकार कहते ही चारों वधुओं के मुख से सहज ही निकल पड़ा - "हे स्वामिन् ! आपकी मंगलमयी परिणति जयवंत वर्तो। हमें आपके वैराग्य को जानकर परम हर्ष है।"
तभी कनकधी बोली - "हे स्वामिन् ! हम सब भी आपके सान्निध्य में आत्महित की अभिलाषी हैं, परन्तु हम अबोध बालायें कुछ समय तक आपका सत्समागम इच्छती हैं। हे स्वामिन्! आप कुछ समय ठहर कर हमें प्रतिबोधित करने के बाद ही दीक्षा धारण करें। हमें रत्नत्रय ग्रहण कराने में निमित्तभूत होवें, तब हम सभी भी आपके साथ दीक्षा धारण कर लेंगे। हे स्वामिन्! हमारे ऊपर उपकार कीजिए।"
तब विरक्त कुमार बोले - “हे भद्रे! तुम्हारा विचार कथंचित् उचित ही है, परन्तु आत्मार्थी-पुरुषार्थी कभी भी निमित्तों की प्रतीक्षा नहीं करते हैं, उन्हें तो एक-एक समय बहुमूल्य रत्नों से भी अधिक कीमती लगता है। इसलिये हे भद्रे! यदि तुम्हारे पास तत्त्वनिर्णय