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जैनधर्म की कहानियाँ पर माता एवं इष्टजनों ने वर-वधु का मंगलगान एवं रत्न-द्वीपों द्वारा स्वागत करते हुए गृह-प्रवेश कराया।
तभी जम्बूकुमार के महल में चारों ओर जम्बूकुमार का गुणानुवाद होने लगा। बालकगण खुशी में एक ओर से दूसरी ओर दौड़ रहे हैं। सौभाग्यवती महिलायें मंगलगान कर रही हैं। किमिच्छक दान दिया जा रहा है। कहीं तुरही तो कहीं शहनाई का वादन हो रहा है। सभी इष्टजन व परिजन प्रसन्न हैं; परन्तु माता का हृदय विह्वल है, पिता का मन आशंकित है। वे कभी मौन रहते हैं तो कभी मन ही मन बड़बड़ाते हैं। कभी अपने मन को समझाते हैं कि नहीं, नहीं; इन चारों सुकन्याओं का रूप-लावण्य एवं कुशलता कुमार के चित्त को अवश्य हर लेगी। पुनः विचार आता है कि क्या सचमुच कुमार रुक जायेंगे? हे नाथ! कहीं कुमार चले ना जायें? क्योंकि वे जानते थे कि चरमशरीरी पुत्र के वैरागी चित्त को बदलना अत्यन्त अशक्य होता है। हे नाथ! प्रात: मेरा घर शोभाहीन न हो जावे। उनका मन बारंबार डोल रहा है। वे कभी विष्फारित नेत्रों से देखते हैं तो कभी दोनों आपस में बातें करते हुए एक-दूसरे को धैर्य बँधाते हैं।
वैराग्य-रस से ओतप्रोत शादी की प्रथमांत रात
अब यहाँ प्रारंभ हुई कुमार के गृहस्थावस्था की प्रथमांत रात। आनेवाले सूर्य में एक आनंदमयी नया प्रभात खिलेगा, जो केवलज्ञानरूप मार्तण्ड को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होगा। ___ महल में बारात आने के बाद कुमार तो अपने कक्ष में जाकर एकांत स्थान में स्वरूप-आराधना के लिये प्रयत्नरत हो गये। इधर चारों वधुएँ सुन्दर महल में कुमार की प्रतीक्षा कर रही हैं, परन्तु बहुत समय की प्रतीक्षा के बाद चारों वधुओं ने सोचा कि कुमार के कक्ष में जाकर देखा जाये। वे कुमार के कक्ष में प्रवेश करती हैं और देखती हैं कि कुमार तो एक नि:स्पृह योगी की तरह निश्चल बैठे हुए हैं। तब चारों वधुएँ कुमार को प्रणाम करती हुई बोलीं - "हे देवराज! आज के ऐसे अवसर पर आपके रूठने का क्या कारण है। आप जरा नेत्रों को तो खोलिए। हमारी आपके चरणों