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___ श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१११ श्री महावीर प्रभु की वंदना हेतु उनके समवशरण में पधारे। श्री १००८ पूज्य वर्धमान प्रभु के मुख-कमल से धर्मामृत का पान कर सुप्रतिष्ठ राजा ने संसार देह भोगों से उदास हो, अष्ट कर्मों की नाशक और अष्ट महागुणों की प्रदाता ऐसी निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर ली। ध्यान-ज्ञान में लीन, वैराग्यमूर्ति श्री सुप्रतिष्ठ मुनिराज को ज्ञानाराधना के प्रताप से द्वादशांग की अपूर्व लब्धि प्रगट हो गई; इसलिए वे पूज्य वर्धमान स्वामी के चौथे गणधर के रूप में शोभने लगे।
ज्ञान-वैराग्य की अनुपम मूर्ति पूज्य पिता को गणधर पद में विराजमान देख सुधर्मकुमार को भी वैराम्य हो गया, जिससे उसने भी वीतरागी जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। तथा चारों प्रकार की आराधनाओं का आराधन कर द्वादशांग श्रुत का पारगामी बनकर श्री वीरप्रभु के पाँचवें गणधर के रूप में सुशोभित होने लगा। वही भावदेव का जीव मैं तेरे सामने बैठा हूँ और तुम भवदेव के जीव हो, जो छठे स्वर्ग के विद्युन्माली देव-पर्याय से आकर सेठ अर्हदास के सुपुत्र हुए हो और विद्युन्माली देव की जो चार देवियाँ थीं, वे भी वहाँ से च्युत होकर सागरदत्त आदि चार श्रेष्ठियों की कन्यायें हुईं हैं, जो तेरी ही भार्या होंगी। हे धर्मज्ञ वत्स! यह तुम्हारी पूर्व आराधनाओं का फल है, जो तुम्हें परम पवित्र जिनधर्म मिला, सच्चे धर्म की पोषक जिनवाणी एवं परम पूज्य वीतरागी संत मिले।"
जम्बूकुमार का वैराग्य जम्बूकुमार पहले से तो आराधक थे ही, परम पूज्य मुनिराज के मुखारविंद से अपने भवांतर की कहानी सुनकर उनकी आराधना अब दृढ़ता को प्राप्त हो गई। संसार का जड़-वैभव सड़े हुए तृण के समान भासने लगा। ये सुन्दर काया श्मशान की राखवत् दिखने लगी। यह पुण्य का प्रताप छिनकी हुई नाक के समान जान पड़ने लगा। उन्हें जगत में एक आत्माराधना के अलावा सब असार भासित होने लगा। उनका मन जिनदीक्षा के लिये तैयार हो गया। इसलिए वे पूज्य गुरुवर के समक्ष हाथ जोड़कर जिन-दीक्षा की प्रार्थना करने लगे - “हे जगत-उद्धारक करुणासिंधु विभु! मैं इस संसार एवं सांसारिक भावों से थक चुका हूँ, इसलिए मुझे परम आनंददायिनी जैनेश्वरी