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जैनधर्म की कहानियाँ
वेदन जिन्हें असंग ज्ञान का, नहीं संग में अटके । कोलाहल से दूर स्वानुभव, परम सुधा रस गटके ॥ भवि दर्शन उपदेश श्रवण कर, जिनसे शिवपद पावें ॥ १ ॥ ज्ञेयों से निरपेक्ष ज्ञानमय, अनुभव जिनका पावन । शुद्धात्मा दरसाती वाणी, प्रशममूर्ति मन-भावन ॥ अहो जितेन्द्रिय गुरु अतीन्द्रिय, ज्ञायक प्रभु दरसावें ॥ २ ॥
हे मलयगिरि के चंदन की सुगंध समान शांत प्रभो! हे समदर्शी गुरु! हे वीतरागी विभु ! आपको शत शत बार नमन हो
!
नमन हो !!
मेरा
क्या स्वरूप मेरे मन में
हे प्रभो ! मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ ? है ? यह कौन-सा पुण्योदय है ? इत्यादि अनेक प्रश्न उठ रहे हैं, इसलिए हे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी विभु ! आपसे इनका स्वरूप जानने की मेरी प्रबल भावना हुई है । "
श्री सुधर्माचार्य गुरुवर बोले " हे भव्योत्तम ! तुम ज्ञानानंदमयी शाश्वत चैतन्यतत्त्व हो, ज्ञान दर्शन सुख वीर्य प्रभुता विभुता आदि अनंत शक्तियों के भंडार हो, ऐसे निजस्वरूप की आराधना से निश्चय रत्नत्रय प्राप्त कर जगत का ज्ञाता दृष्टा रहना ही तुम्हारा स्वरूप है । अपनी शाश्वत प्रभुता का संवेदन करना ही तुम्हारा काम है।
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हे भव्य ! इसी मगध देश की वर्धमानपुरी में दो निकट भव्य ब्राह्मण पुत्र थे, जिनके नाम भावदेव एवं भवदेव थे । उन दोनों ने शाश्वत सुखदायी जिनदीक्षा धारण कर ली और समाधिमरण पूर्वक देह छोड़कर वे सानत्कुमार स्वर्ग में देव हुए। वहाँ की आयु पूर्ण कर भावदेव तो वज्रदंत राजा का सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ और भवदेव महापद्म चक्रवर्ती का शिवकुमार नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी वे दोनों क्रमश: जिनदीक्षा धारण करके उग्र तप को तपते हुए समाधिपूर्वक देह त्याग करके छठे ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुए। वहाँ से च्युत होकर भावदेव का जीव भरतक्षेत्र के संवाहनपुर के राजा सुप्रतिष्ठ तथा उनकी पटरानी रूपवती का सुधर्म नाम का पुत्र हुआ। वह राजा तो वीतरागी धर्म का उपासक है ही, मगर वह नगर भी अनेक मुनि भगवंतों की चरण-रज से पवित्र है ।
धर्मानुरागी सुप्रतिष्ठ राजा एक दिन अपनी पटरानी एवं पुत्र सहित