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________________ १०६ देव - शास्त्र - गुरुओं के सेवक हैं। आराधक कहीं भी कैसी भी परिस्थिति में हो, परन्तु अपने आराध्य को नहीं भूलते। जम्बूकुमार ने शुद्ध वस्त्रादि पहन कर अष्ट द्रव्य की थाली अपने हाथों में लेकर श्री जिनेन्द्रदेव के मंदिर में जाकर प्रभु की खूब भक्ति-भाव से दर्शन-पूजन की, अपने किए हुए दोषों की आलोचना की तथा वीतरागता -पोषक जिनवाणी का स्वाध्याय किया । इसके उपरांत वे पुनः मृगांक के महल में पधारे। वहाँ राजा मृगांक ने सरस सुगंधित शुद्ध व्यंजनों द्वारा जम्बूकुमार को भोजन कराया। तदुपरांत कुमार से सुन्दर शय्या पर विश्रांति की प्रार्थना की। उसके बाद आगंतुक योद्धागण आदि तथा रत्नचूल विद्याधर सहित मृगांक राजा ने भोजन किया। विश्रांति-काल पूर्ण होने के बाद जम्बूकुमार वहाँ से राजदरबार जाने के लिये प्रस्थान करने को तैयार हुए। जैनधर्म की कहानियाँ रत्नचूल भी बंधन - मुक्त मृगांक नृप ने जम्बूकुमार को राजसभा में ले जाकर राज - सिंहासन पर आसीन किया। नीति निपुण दयावान कुमार ने राजसभा में रत्नचूल को बंधन मुक्त करते हुए मंगलमयी कोमल वचनों से संबोधित कर संतुष्ट किया "हे विद्याधर ! युद्ध में जय-पराजय तो होती ही है । ये तो क्षत्रियों का धर्म है। इसमें क्षत्रिय हर्ष - विषाद नहीं करते । हे भ्रात! संसार की जीत भी हार ही है। शारीरिक बल एवं पुण्य - प्रताप मुक्तिमार्ग में अकिंचित्कर हैं । क्षत्रिय का धर्म तो द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म से भिन्न निज चैतन्यप्रभु की उपासना से कैवल्य प्राप्त कर चैतन्य के शाश्वत सदन में पहुँच कर कर्म- सेना को निःसत्त्व करना है । वहाँ का सादि अनंत काल का निर्विघ्न राज्य करना ही हम जैसों का धर्म है। हे विद्याधर ! सच्चे देव शास्त्र - गुरुओं की उपासना सहित आत्महित को साधते हुए आप अपने राज्य एवं परिवार में सुख से रहो और सुख भोगो । " - कुमार के मुख से आत्महितकारी वचनामृत का पान करके रत्नचूल नम्रतापूर्ण वचनों से अपने भावों को प्रगट करते हुए बोले "हे स्वामी ! हे शूरवीर कुमार, मैं आपके ही साथ चलकर श्रेणिक महाराज
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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