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जैनधर्म की कहानियाँ
अरे विद्याधरों के स्वामी रत्नचूल ! तुम ऐसे खोटे विचारों को तजो ! इनसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है। उल्टा इनसे तुम अपयश के ही भागी होगे । बलवान मानव भी यदि कुमार्ग में चलकर कामी हो जाता है तो उसे नष्ट होते देर नहीं लगती। रावण आदि का चरित्र जगत में प्रसिद्ध है। इसलिए हे विद्याधर ! तुम अब उत्तम विचारों में अपना मन लगाओ। जब मृगांक ने अपनी कन्या श्रेणिक राजा को देना निश्चित कर लिया है, तब वह तुझे कैसे दी जा सकती है ? यह बात अपयश की ही होगी। यदि युद्ध होगा तो यह क्षत्रिय का धर्म नहीं है कि अपने प्राणों की रक्षा के लिए युद्ध से वापिस भाग जाये । अतः कौन ऐसा बुद्धिमान है, जो अपयशरूपी विष का पान करेगा ? हे विद्याधर ! कुविचार एवं कुआचरण छोड़ कर नीतिमार्ग अपनाना चाहिए और निंदा योग्य कार्य या वचन भी नहीं कहना चाहिए । "
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इसतरह श्री जम्बूकुमार ने हितकारी वचनों के पुष्पों से गूँथी हुई अति शीतल माला रत्नचूल को पहनाई, परन्तु जैसे स्त्री के विरह में शीतल पुष्पमाला भी उष्ण भासती है, वैसे ही विद्याधर को वह तापकारी हो गई ।
क्रोधयुक्त रत्नचूल का जवाब
कुमार की बातें सुनते ही रत्नचूल क्रोध से भभक उठा । नेत्र लाल हो गये, ओंठ काँपने लगे और क्रोध से जलती हुई उसकी वाणी निकली "हे बालक ! तू मेरे यहाँ दूत बनकर आया है। अतः तू बालक होने से मारने योग्य नहीं, परन्तु दुष्ट ! अब तेरी दूसरी अवस्था भी हो ही नहीं सकती । तू अपने स्वामी के कार्य का विनाशकारक है और बैर को बढ़ाने वाले वचनों को कहते तुझे हुए जरा भी लज्जा नहीं आती । तू इतना भी नहीं जानता कि तुझे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं । न तुझे किसी के बल - अबल का विचार है। बस, की भाँति ढीठता से जो मन में आया सो बकता ही जाता है।
बावलों
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अरे ! उल्लू की शक्ति नहीं कि वह सूर्य का सामना कर सके । क्या जीरे का बीज सुमेरुपर्वत को भेद सकता है ? तुझे ऐसे वचालतापूर्ण