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________________ अस्तित्व कई कई रीते सिद्ध छे? हवे जो तेनं अस्तित्व सिद्ध छे तो ते जीवो सामान्यथी अने जातिभेद केटली संख्यामां होय?, ते ते जातिभेदरुपे केटलो काल टकी शके ?, अन्य जातिभेदने प्राप्त थयेला पुनः ते जातिभेदने केटला काळमां प्राप्त करे ?, कोई एक समये समस्त जगतमा प्राप्त थाय के जगतना अमुक भागमा प्राप्त थाय ? इत्यादि विचारणाथी जीव पदार्थनो सूक्ष्म अने दृढ बोध थाय छे. आ जातनी विचारणा करवा माटे शास्त्रोमां अनेक प्रकारो आवे छे, जेने अनुयोगद्वार कहेवाय छे, जेमके 'संतपयपरुवण, या 'दव्वपमाणं च 'खित, "फुसणा य । "कालो अ, अंतरं "भाग 'भावे 'अप्पाबहुं चेव ॥१॥ आमां 'सत्पदप्ररुपणा नामना प्रथम द्वारथी जीवादि ते ते पदार्थना अस्तित्वनो विचार, "द्रव्यप्रमाण द्वारथी तेनी संख्यानो विचार, क्षेत्र' द्वारथी कोई एक समये जीवादि ते ते पदार्थनी हयातीनां स्थाननो विचार, 'स्पर्शना' द्वारथी समस्त अतीतकालनी अपेक्षाए जीवादिनी हयातीनां स्थान इत्यादि विचारणा कराय छे. बीजां पण पदार्थोनां चितन-मनन माटे उपयोगी द्वारो छे, कडुं छे के 'निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः' इत्यादि __वर्तमानमा सिद्धान्तमहोदधि कर्मशास्त्र-निष्णात पू. आचार्यदेव श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेबनी निश्रामा तेओश्रीनो शिष्यप्रशिष्यादि परिवार कर्मसाहित्यना विविध अंगो उपर विपुल प्रमाणमां साहित्य सर्जन करी रहेल छे, कर्मसाहित्यना अनेक ग्रन्थोनुं अध्ययन अने अन्वेषण करी एक-एक विषय पर मौलिक ग्रन्थो तैयार करी रहेल छे, तेना फलस्वरूप "खवगसेढी" (क्षपकश्रेणी) अने "ठिइबंधो" (स्थितिबन्ध) नामक बे महाकाय ग्रन्थोनुं प्रकाशन विशिष्ट समारोह पूर्वक राजनगरना आंगणे गत वर्षनी आखरमां थयेल छे ते सौ कोई जाणे छे, आगळना ग्रन्थोनुं कार्य पण अविरत पणे चालु छे, प्रकाशितग्रन्थ अने प्रकाशमां आवनारा ग्रन्थो तथा बीजा पण ग्रन्थोमा उपयोगी एवं द्रव्यप्रमाणप्रकरण स्वोपज्ञ लघु विवेचन साथे 'ठिइबंधो' ग्रन्थना परिशिष्ट तरीके प्रकाशित थई गयुं छे. ते ज रीते अन्य ग्रन्थमां अने स्वाध्याय-रुचि महानुभावोने उपयोगी जणावाथी विपुल पदार्थोना संग्रहरुप प्रकाशित थतुं आ स्वोपज्ञवृत्ति सहित क्षेत्रस्पर्शना-प्रकरण छे. आ क्षेत्रस्पर्शना-प्रकरण मां पदार्थज्ञानना सक्ष्म अने सम्यग बोधमां हेतु उपर्युक्त अनुयोग द्वारोमांनां क्षेत्र अने स्पर्शना ए बे द्वार लई जीवपदार्थनो विचार करवामां आव्यो छे ते पण 'गइइंदिए य काये' इत्यादि गाथा प्रसिद्ध १४ मूलमार्गाणाभेदानुसारी १७४ भेदप्रभेदमां करायो छे. क्षेत्रनो विचार 'उपपात स्वस्थान अने 'समुद्घात एम त्रण भेदथी अने स्पर्शनानो विचार गमनागमनरुप चोथा भेदथी पण करवामां आव्यो छे. आ त्रण प्रकारचें क्षेत्र अने चार प्रकारनी स्पर्शना कषाययुक्त अने कषाय रहित जीनोनी अपेक्षाए जदी जदी बताववामां आवी छे. आ बधा पदार्थोने जीवविचार आदि प्रकरणोनी जेम प्रथम गाथाओमां गुंथी लई प्रकरणकर्ताए पोते तेना विवेचनरुप टीकानी रचना करी छे. आ प्रकरणर्नु स्वोपज्ञवृत्तिसहित संयोजन पू. आचार्यदेव
SR No.009694
Book TitleKshetra Sparshana Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagatchandravijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size891 KB
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