________________ [ 81 हुए नामोंसे ज्ञात होता है। गुमकालमें नामोंके संस्कृत रूप की प्रधानता हुई। उस समय की जो मिट्टी की मुहरें मिली हैं उनपर अधिकांश नाम शुद्ध संस्कृत में और अविकल रूप में मिलते हैं, जैसे-'सत्यविष्णु, चन्द्रमित्र, धृतिशर्मा आदि / गुप्तकाल के बाद जब अपभ्रंश भाषा का प्रभाव बढ़ा तब लगभग 8 वी शतीसे नामोंके स्वरूप ने फिर पलटा खाया। जैसे राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द का नाम 'गोइज' मिलता है। 10 वीं शती के बाद तो प्रायः नामों का अपभ्रंश रूप ही देखा जाता है, जैसे नागभट्ट वाग्भट्ट और त्यागभट्ट जैसे सुन्दर नामोंके लिये नाहड़, बाहड़ और चाहड़ ये अपभ्रंश रूप शिलालेखोंमें मिलते हैं। इस प्रकार के मध्य. कालीन नामोंकी मूल्यवान सामग्री के चार स्रोत हैं-शिलालेख, मूर्ति प्रतिष्ठा लेख, पुस्तक प्रशस्तियां और साहित्य / चारों ही प्रकार की पर्याप्त सामग्री प्रकाशित हो चुकी है। मुनि पुण्यविजयजी द्वारा प्रकाशित जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह में और श्री विनयसागरजी द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठा लेख संग्रह' में अपभ्रंश कालीन नामोंकी बृहत् सूचियां दी हुई हैं। बीकानेर के प्रतिष्ठा लेखोंमें आए हुए नाम भी उसी शृङ्खला की बहुमूल्य कड़ी प्रस्तुत करते हैं। इनकी भी क्रम बदसूची बननी चाहिए। इन नामोंसे यह भी ज्ञात होता है कि कुमारी अवस्था में स्त्रियों का पितृ-नाम भिन्न होता था किन्तु पतिके घरमें आने पर पतिके नाम के अनुसार स्त्री के नाम में परिवर्तन कर लिया जाता था। जैसेसाहु तेजा के नामके साथ भार्या तेजल दे, अथवा साहु चापा के साथ भार्या चापल दे। फिर भी इस प्रथाका अनिवार्य आग्रह न था, और इसमें व्यक्तिगत रुचिके लिये काफी छूट थी। इन नामोंके अध्ययन से न केवल भाषा सम्बन्धी विशेषताएँ ज्ञात हो सकेंगी किन्तु धार्मिक लोक प्रथाओं पर भी प्रकाश पड़ सकता है ! जैसे 'साहु दूला पुत्र छीतर' इस नाममें (लेख संख्या 1616 ) दुर्लभ राजका पहले दुल्लह अपभ्रंश रूप और पुनः देश-भाषामें उसका उच्चारण दूला हुआ। 'छीतर' नामसे ज्ञात होता है कि उसकी माताके पुत्र जीवित न रहते थे। देशी भाषामें 'छीतर' टूटी हुई टोकरी का वाचक था, ऐसा हेमचन्द्र ने लिखा है। जब पुत्रका जन्म हुआ तो माताने उसे छीतरी में रखकर खींचकर घूरे पर डाल दिया, जहाँ उसे घरकी मेहतरानी ने उठा लिया। इस प्रकार मानों पुत्रको मृत्युके लिये अर्पित कर दिया गया। मृत्युका जो भाग बच्चेमें था उसकी पूर्ति कर दी गई। फिर उस बच्चे को माता-पिता निष्क्रय देकर मोल ले लेते थे; वह मानों मृत्युदेव के घरसे लौटकर नया जीवन आरम्भ करता था। इस प्रकार के बच्चों को 'छीतर' नाम दिया जाता था! अपभ्रंश में 'सोल्लू' या सुल्ला' नाम भी उसी प्रकार का था। सुल्, धातु फेंकने के अर्थमें प्रयुक्त होती थी! हिन्दी फिक्कू खचेडू आदि नाम उसी परम्परा या लोक विश्वास के सूचक हैं। मध्यकालीन अपभ्रंश नामों पर स्वतन्त्र अनुसंधान की अत्यन्त आवश्यकता है। उसके लिये नाहटाजी ने इन लेखोंमें मूल्यवान् सामग्री संगृहीत कर दी है। यह भी ज्ञातव्य है कि पुरुष नामोंके साथ श्रेष्ठी, साहु, व्यावहारिक आदि सम्मान सूचक पदोंका विशेष अर्थ था। अब वे संस्थाएँ धुंधली पड़ गई हैं। अतएव "Aho Shrut Gyanam"