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________________ [ 81 मारवाड़ के गोढ़वाड़ प्रदेशका राणकपुर तीर्थ बहुत ही कलापूर्ण एवं महत्व का है। वहाँ के समस्त प्रतिमा लेखों की नकलें पं० अंबालाल प्रेमचंदशाह ने की थी, उसकी नकल भी हमारे संग्रह में है। हरिसागरसूरिजी के अधिकांश लेखों की नकलें भी हमारे संग्रह में हैं । इसप्रकार अभी तक हजारों जैन प्रतिमा लेख, हमारे संग्रह में तथा अन्य व्यक्तियों के पास अप्रकाशित पड़े हैं । उन्हें और एपिग्राफिया इंडिका आदि ग्रन्थों में एवं फुटकर रूपसे कई जैन पत्रों में जो लेखछपे हैं उनका भी संग्रह होना चाहिये। आनन्दजी कल्याणजी पेढ़ी ने साराभाई नवाब को समस्त श्वे. जैन तीर्थों में वहां की प्रतिमाओं की नोंध व कलापूर्ण मंदिरों के फोटो व लेखों के संग्रह के लिए भेजा था। साराभाई ने भी बहुत से लेख लिये थे। उनमें से जैसलमेर के ही कुछ लेख प्रकाश में आये हैं, अवशेष सभी अप्रकाशित पड़े हैं। गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ भी जैन धर्म का बहुत विशिष्ट प्रचार केन्द्र है। वहां हजारों जैन मुनि निरंतर विचरते हैं व हजारों लक्षाधिपति रहते हैं। उनको भी वहां के समस्त प्रतिमा लेखों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न करना चाहिये। खेद है, शत्रुञ्जय जैसे तीर्थ और अहमदावाद जैसे जैन नगर, जहां सैकड़ों छोटे बड़े जैन मन्दिर हैं, सैकड़ों साधु रहते हैं, हजारों समृद्ध जैन बसते हैं वहां के मन्दिर व मूर्तियों के लेख भी अभी तक पूरे संगृहित नहीं हो पाये। इसी प्रकार पाटन में भी शताधिक जैन मन्दिर हैं। गिरनार आदि प्राचीन जैन स्थान है उनके लेख भी शीघ्र ही संग्रहीत होकर प्रकाश में लाना चाहिए। जैसा की पहले कहा गया है स्व०विजयधर्मसूरिजी ने हजारों प्रतिमा लेख लिये थे उनमें से केवल ५०० लेखही छपे हैं, बाकीके समस्त शीघ्र प्रकाशित होने चाहिये, इसी प्रकार एक और मुनि जिनका नाम हमें स्मरण नहीं, सुना है उन्होंने भी हजारों प्रतिमा लेख संग्रह किये हैं वे भी उनको प्रकाश में लावें। आगम-प्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनि दर्शनविजयजी त्रिपुटी, साहित्यप्रेमी मुनि कान्तिसागरजी, मुनिश्री जिनविजयजी व नाहरजी आदि के संग्रह में जो अप्रकाशित लेख हों उन्हें प्रकाशित किये जा सकें तो जैन इतिहास के लिये ही नहीं, अपितु भारत के इतिहास के लिये भी बड़ी महत्वपूर्ण बात होगी। इतिहास के इन महत्वपूर्ण साधनों की उपेक्षा राष्ट्र के लिये बड़ी ही अहितकर है। इन लेखों में इतनी विविध एतिहासिक सामग्री भरी पड़ी है कि उन सब बातों के अध्ययन के लिये सैकड़ा व्यक्तियों की जीवन साधना आवश्यक है। इन लेखोंमें राजाओं, स्थानों गच्छों, आचार्यों, मुनियों, श्रावक-श्राविकाओं, जातियों और राजकीय, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक इतनी अधिक सामग्री भरी पड़ी है कि जिसका पार पाना कठिन है। इसी प्रकार इन मन्दिर व मूर्तियों से भारत की शिल्प, स्थापत्य, मूर्तिकला व चित्रकला आदि के विकास की जानकारी ही नहीं मिलती पर समय-समय पर लोकमानस में भक्ति का किस प्रकार विकास हुआ, नये-नये देवी देवता प्रकाश में आये, उपासना के केन्द्र बने, किस-किस समय भारत के किन-किन व्यक्तियों ने क्या-क्या महत्व के कार्य किये, उन समस्त गौरवशाली इति "Aho Shrut.Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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