SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाश्रयों, ज्ञानभंडारों आदि की जानकारी देने के लिये बहुत अन्वेषण और श्रम करना पड़ा। मन्दिरों से सम्बन्धित शताधिक स्तवनों आदि की प्रेसकापी की और उन समस्त सामग्री के आधार से बहुत ही ज्ञानवर्धक भूमिका लिखी गई जो इस ग्रन्थ में-प्रन्थ के प्रारम्भ में पाठक पढ़ेंगे। लेख संग्रह बहुत बड़ा हो जाने के कारण उन स्तवनों को प्रेसकापी को इच्छा होते हुए भी इसके साथ प्रकाशित नहीं कर पाये। पर उनके ऐतिहासिक तथ्यों का उपयोग भूमिका में कर लिया गया है। ___संवत् १६६६ में हम जैन ज्ञानभंडारों के अवलोकन व जैन मंदिरों के दर्शन के लिये जैसलमेर गये वहाँ स्व. हरिसागरसूरिजी के विराजने से हमें बड़ी अनुकूलता रही। २०-२५ दिन के प्रवास में हमने खूब डटकर काम किया। प्रातःकाल निपट कर महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित प्रतियों की नकल करते फिर स्नान कर किले के जैन मन्दिरों में जाते पूजा करने के साथ-साथ नाहरजी के प्रकाशित जैन लेख संग्रह भा० ३ में प्रकाशित समस्त लेखों का मिलान करते और जो लेख उसमें नहीं छपे उनकी नकलें करते, वहाँ से आते ही भोजन करके ज्ञानभंडारों को खुलवाकर प्रतियों का निरीक्षण कर नोट्स लेते। नकल योग्य सामग्री को छांट कर साथ लाते, आते ही भोजन कर रात में उस लाई हुई सामग्री का नकल व नोट्स करते। इस तरह के व्यस्त कार्यक्रम में जैसलमेर के अप्रकाशित लेखों की भी नकलें की । इस लेख संग्रह में बीकानेर राज्य के समस्त लेख जो छप गये तो विचार हुआ कि जैसलमेर के अप्रकाशित लेख भी इसके साथ ही प्रकाशित कर दें तो वहां का काम भी पूरा हो जाय। प्रारम्भ से ही हमारी यह योजना रही है कि जहां का भी काम हाथ में लिया जाय उसे जहाँ तक हो पूरा करके ही विश्राम लें जिससे हमें फिर कभी उस काम को पूरा करने की चिन्ता न रहे साथ-साथ किसी दूसरे व्यक्ति को भी फिर उस क्षेत्र में काम करने की चिन्ता न करनी पड़े। इसी दृष्टि से बीकानेर के साथ-साथ जैसलमेर का भी काम निपटा दिया गया है। दूसरी बात यह भी थी कि बीकानेर की भांति जैसलमेर भी खरतरगच्छ का केन्द्र रहा है अतः इन दोनों स्थानों के समस्त लेखों के प्रकाशित हो जाने पर खरतरगच्छ के इतिहास लिखने में बड़ी सुविधा हो जावेगी। इन लेखों के संग्रह में हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है पर उसके फलस्वरूप हमें विविध प्राचीन लिपियों के अभ्यास व मूर्तिकला व जैन इतिहास सम्बन्धी ज्ञान की भी अभिवृद्धि हुई अनेक शिलालेख व मूर्तिलेख ऐसे प्रकाशहीन अंधेरे में हैं जिन्हें पढ़ने में बहुत ही कठिनता हुई ! मोमबत्तियें टॉर्चलाइट, छाप लेने के साधन जुटाने पड़े फिर भी कहीं कहीं पूरी सफलता नहीं मिल सकी इसी प्रकार बहुत सी मूर्तियोंके लेख उन्हें पच्ची करते समय दब गये एवं कई प्रतिमाओं के लेख पृष्ठ भागमें उत्कीर्णित हैं उनको लेने में बहुत ही श्रम उठाना पड़ा और बहुत से लेख तो लिये भी न जा सके क्योंकि एक तो दीवार और मूत्ति के बीच में अन्तर नहीं था दूसरे मूर्तियों की पच्ची इतनी अधिक हो गई कि उनके लेखको "Aho Shrut Gyanam
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy