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________________ । १०६ ] निर्मापक जोड़ा होगा। एक गोडा ऊँचा और दूसरा नीचा किये बैठे हैं। पुरुष के दाढ़ी मूछे हैं पुरुष के कानों में गड़दे, हार, बाजू, कंदोला, कंकण एवं पैरों में पाजेब तक विद्यमान है स्त्रीके भी सभी आभरण हैं। घाघरा है, पर ओढणे को कमर के पीछेसे लाकर हाथोंके बीचसे लटकाया है। इसी प्रकार का उत्तरीय वस्त्र पुरुष के भी है ! आश्चर्य है कि कलाकार स्त्री को पाजेब पहिनाना भूल गया इस मूर्तिमें स्थित सभी देवियों के मस्तक पर मुकुट की तरह जटा-जूट, किरीटानकारी किया हुआ है पर इन भक्तोंकी जोड़ीके वैसा नहीं क्योंकि ऐसा करना अविनय होता। इसी तरह आकाश स्थित पुष्पमालाधारियोंके भी। इन भक्त जोडीके केश-विन्यास बड़ी ही सुन्दरता से सजावट युक्त बनाकर पीछेकी ओर जूड़ा बांध दिया है। दोनों सविनय हाथ जोड़े हुए बैठे देवीके वरदानकी प्रतीक्षा में उत्सुक प्रतीत होते हैं। सरस्वती की दूसरी मूर्ति भी ठीक इससे मिलती जुलती और सुन्दर है। परिकर के बाजू की देवियों में विशेष अन्तर नहीं पर तोरण में खासा फरक है उभयपक्ष व उपरिवर्ती जिनालय में उभयपक्ष में दो दो काउसग्गिए (खगासनस्थित जिन प्रतिमा) एवं मध्यस्थित सभी प्रतिमाएं पद्मासनस्थ हैं। कबाणी में तीन-तीन पुरुष व एक-एक स्त्री ही हैं। ___सरस्वती प्रतिमा के उभय पक्षमें अधरस्थित देव नहीं हैं पर निम्नभागमें दोनों तरफ कमलासन पर बैठी हुई देवियाँ वंशी बजाने का उपक्रम कर रही है। सरस्वती के वाहन स्वरूप मयूर, कमलासन पर बना हुआ है ! सरस्वती के पैरों पर इसमें वस्त्र चिह्नके सल भी हैं। दोनों कानों में भंवरिये तथा दूसरे सभी आभूषण एक जैसे हैं। मुखाकृति इसकी कुछ पष्ट है एवं गलेमें कालर-कण्ठी पहिनी हुई है, यह विशेषता है। हस्तस्थित कमल द्वादशदल का है खड़े रहने के तरीके व पदविन्यास में किंचित भेद है, कुछ साधारण भेदों के सिवा उभय प्रतिमाएँ राजस्थानी कलाके श्रेष्ठतम नमूने हैं। उपर्युक्त सरस्वती मूर्तियों के अतिरिक्त कुछ जिन प्रतिमाएँ और गुरू मूर्तियाँ भी कला की दृष्टि से अति सुन्दर हैं। डागों के महावीरजी में जांगलू वाले परिकर में विराजमान प्रतिमा, शान्तिनाथजी की मूलनायक प्रतिमा, भीनासर मंडन पार्श्वनाथ, ऋषभदेव स्वामी, वैदोंके महावीरजी में सहसफणा पार्श्वनाथजी एवं गुरुमूर्तियों में युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि एवं क्षमाकल्याणजी की मूर्ति आदि उल्लेखनीय हैं। जांगलू व अजयपुर के प्राचीन परिकर एवं श्री चिन्तामणिजी में स्थित दूसरे परिकर भी कला की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं। तीर्थोके पट्ट, नेमिनाथ बरात, चतुर्विशति मातृपट्ट आदि भी तक्षणकला के सुन्दर नमूने हैं। धातु मूर्तियों की विविध कला तो उल्लेखनीय है ही। भित्तिचित्र गौड़ी पार्श्वनाथजी आदिमें कई प्राचीन भी अब तक सुरक्षित हैं। कुछ स्वतन्त्र चित्र भी मन्दिरों एवं अन्य संग्रहालयोंमें है वे बीकानेरी चित्रकला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। गौड़ी पार्श्वनाथजी में श्रीज्ञानसारजी व अमीचन्दजी सेठिया व श्री जिनहर्षसूरिजी के चित्र भी समकालीन होनेसे महत्वपूर्ण हैं। बीकानेर के कलात्मक उपादानों पर कभी स्वतन्त्र रूपसे प्रकाश डाला जायगा भूमिका के अति विस्तृत होने के कारण हमने बीकानेर के जैन इतिहास, साहित्य और कालाको चर्चा यहाँ बहुत ही संक्षेप में की है। यहाँ की कलाभिव्यक्ति करनेवाले कुछ चित्र इस ग्रन्थमें दिये जा रहे हैं जिससे पाठकों को इसका साक्षात् दशन हो जायगा। अगरचन्द नाहटा भवरलाल नाहटा "Aho Shrut.Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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