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________________ पतिके पीछे सती होनेकी प्रथा तो प्रसिद्ध ही है पर पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पुत्रके पीछे माता भी सती हुआ करती थी और लोक उसे भी वैसे ही आदरसे देखते और पूजा मान्यतादि करते हैं। बीकानेरके दो लेख इस आश्चर्यजनक और महत्वपूर्ण घटना पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। जिस प्रकार पतिके पीछे सती होनेमें पति प्रेमकी प्रधानता है उसी प्रकार मातृसती होने में पुत्र-वात्सल्यकी। मजेकी बात तो यह है बीकानेर में प्राप्त सर्व प्रथम और अंतिम दोनों देवलिए माता-सतियोंकी हैं, अर्थात् प्रारंभ और अंत दोनों मातासतियोंसे है। ऐसी माता सती का एक लेख माहेश्वरी जाति का भी देखने में आया है। बीकानेर की कई सती देवलिए बड़ी चमत्कारी और प्रभावशाली हैं। उनके सम्बन्ध में अनेकों चमत्कारी प्रवाद सुने जाते हैं। कई सतियों के चमत्कार आज भी प्रत्यक्ष हैं। ओसवाल सतियों की इतर जातिवाले भी श्रद्धापूर्वक मान्यता करते हैं। कई सतियों की जात, मान्यतादि उनके वंशज व गोत्र वाले अब तक करते हैं साधारणतया उनकी व्यवस्था ठीक ही है परन्तु कतिपय देवलियों की अवस्था इतनी सोचनीय है कि लोग उनके चारों तरफ कूड़ा कर्कट और मेहतर लोग विष्ठा तक डाल देते हैं, देवलियां अकूड़ियों में गड़ गई हैं और पैरों तले रौंदी जाती है। उनके गोत्रजों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। कई सती-देवलियोंके लेख घिस गए, खंडित हो गए, जमीनमें दब गए और जो अशुद्ध एवं अस्पष्ट हैं उन लेखों की नकल कर संग्रह करने में बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। किसी किसी लेख को पढ़ने में घण्टों समय लग गया है। मध्याह्न की कड़ी धूप में गड़ी हुई देवलियों के लेखों को खोद कर, धोकर रंगभर कर अविकल नकल करने में जो परिश्रम हुआ है, उसे भुक्तभोगी ही अनुभव कर सकते हैं। सभी देवलियां एक स्थान में तो हैं ही नहीं कि जिससे थोड़े समय में संग्रह-कार्य सम्पन्न हो जाय, अतः इन लेखों को बीकानेर के चारों ओर स्मशानों में, बगीचियों में और ऐसे स्थानों में जहाँ साधारण व्यक्ति जाने का साहस ही नहीं कर सकता, घूम फिर कर संग्रह किये गये हैं। लेखों को खोज कर संग्रह करने में श्रीयुक्त मेघराजजी नाहटा का सहयोग विशेष उल्लेखनीय है, उनके सहयोग के बिना यह कार्य होना अशक्य था। प्रस्तुत लेखों को संग्रह करते समय दो ओसवाल भोमिया अझारों की देवलियां दृष्टिगोचर हुई जिनके लेख भी इसी संग्रह में दिये गये हैं। सती-प्रथाका अवसान पूर्वकाल में पतिके रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त कर जाने पर उनकी स्त्रियां पतिकी देह या मस्तक और उसकी अविद्यमानता में उसकी पगड़ी के साथ सच्चे प्रेमसे चिता प्रवेश करती थीं और पीछेसे विशेष कर यह एक रूढिमात्र रह गई थी। जीते हुए स्वेच्छा से धधकती अग्नि में प्रवेश कर जल मरना साधारण कार्य नहीं है और सती होनेवाले प्रत्येक स्त्रीका हृदय इतना सबल होना संभव नहीं है। पर लोगोंने इसे एक बड़ा महत्त्वपूर्ण आदर्श और आवश्यक कार्य मान "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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