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बीकानेर के जैन ज्ञानभंडार
जैन साहित्य में ज्ञान को आत्मा का विशेष गुण बताया है और इसीलिये ज्ञान को जैनागमोंमें अत्यधिक महत्व दिया गया है। नंदी सूत्र आगम ग्रंथ तो ज्ञान के विवेचन रूपमें ही बनाया गया है। स्वाध्याय-अध्ययन को आभ्यन्तर तप माना गया है। उसका फल परम्परा से मोक्ष है। अतः जैन मुनियों को स्वाध्याय करते रहने का दैनिक कर्तव्य बतलाया गया है। जैनागमों में प्रतिपादित ज्ञान के इस अपूर्व महत्व ने मुनियों की मेधा का खासा विकास किया। उन्होंने अपने अमूल्य समयको विशेषतः विविध ग्रंथोंके अध्ययन अध्यापन एवं प्रणयन में लगाया फलतः साहित्य ( वाङ्मय ) का कोई ऐसा अंग बच न सका जिसपर जैन विद्वानों की गौरवशालिनी प्रतिभासम्पन्न लेखनी न चली हो। वीर-निर्वाण के ६८० वर्ष पश्चात् विशेष रूपसे जैन साहित्य पुस्तकारुढ़ हुआ। उससे पूर्व आगम कंठस्थ रहते थे। अत: अध्ययन अध्यापन ही जैन मुनियों का प्रमुख कार्य था। इसके पश्चात लेखन भी आवश्यक कार्यों में सम्मिलित कर लिया गया। और साधारण मुनियों का समय जो कि शास्त्रों का प्रणयन नहीं कर सकते थे लिखने में व्यतीत होता था। इसी कारण जैन मुनियोंके हस्तलिखित लाखों ग्रंथ यत्र तत्र विखरे पड़े है। दूसरों की अपेक्षा जैनों की लिखी पुस्तकें शुद्ध पायी जाती हैं। साहित्य के प्रणयन एवं संरक्षणमें जैन विद्वान विशेषतः श्वेताम्बर विद्वान तो बड़े ही उदार रहे है, फलस्वरुप जैनेतर ग्रंथों पर सैकड़ों जैन टीकाएं उपलब्ध हैं, जैन भण्डारों में जैनेतर साहित्य प्रचुर परिमाण में सुरक्षित है उनमें कई ग्रंथों की प्रतियां तो ऐसी भी हैं जिनकी प्रतियां नेतर संग्रहालयों में भी नहीं पाई जाती हैं । अतः उनको बचाये रखने का श्रेय जैनोंको ही प्राप्त है ।
जिस प्रकार जैन मुनियोंने लेखन एवं ग्रंथ निर्माण में अपने अपूर्व समय एवं बुद्धि का, सदुपयोग किया उसी प्रकार जैन उपासकों (श्रावकों) ने भी लाखों करोड़ों रुपये का सद्व्यय प्रतियां लिखने में, विविध चित्रालेखन में, स्वर्ण व रौप्य की स्याही से लिखाने में किया । आज भी जैन भण्डारों में सुरिक्षत हजारों प्रतियां ऐसी हैं जिन्हें श्रावकों ने लाखों रुपये व्यय करके लिखायी थी। उनमें से कल्पसूत्रादि को कई प्रतियां तो लेखन चित्रकला, एवं नाना विविधताओं के कारण ऐसी अद्भुत है कि अपनी सानी नहीं रखती । अहमदावाद के भण्डार में एक कल्पसूत्र की प्रति ऐसी है जिनका मूल्य लाख रुपयेसे अधिक आंका जाता है कई प्रतियां स्वर्णाक्षरी और कई रौप्याक्षरी लेखनकला में है। इस कला की सुन्दरता एवं विविधता जैसी जैन प्रतियों में है, अन्यत्र दुर्लभ है। त्रिपाठ, पंचपाठ, बीच में स्थान छोड़कर बनाये हुए विविध चित्र प्रदर्शन नामादि लेखन आदि अनेकानेक विविधताएं जैन भण्डोरों की प्रतियों में हैं। लेखक एवं लिखाने वाले की प्रशस्तियां भी जैन प्रतियों में एतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व की है।
"Aho Shrut Gyanam"