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यायियों की संख्या बीकानेर और बीकानेर के गांवों में सबसे अधिक थी। बीकानेर रियासतके प्रायः सभी गांवोंमें यहाँकी गद्दीके श्रीपूज्यजी के आज्ञानुयायी यति लोग विचरते रहते थे अर्थात् सब तरहसे यह स्थान अपनी महानता के कारण ही यह बड़ा उपासरा सबसे अधिक देश-देशान्तरों में प्रसिद्धि प्राप्त है। इस उपाश्रय के निर्माण के सम्बन्ध में हम आगे लिख चुके हैं कि यह सं० १६१३ के लगभग मंत्रीश्वर संग्रामसिंह ने अपनी माताके पुण्यार्थ बनवाया था। इस उपाश्रयके सम्बन्धमें सं० १७०५ का परवाना हमारे संग्रहमें है, जिसकी नकल इस प्रकार है :
सही
स्वस्ति श्री महाराजाधिराजा महाराजा श्री करणसिंह जी वचनायते खवास गोपाला जोग सुपरसाद वांचजो तथा उपासरो बड़ो भटारकी महाजना रो छ सु भटारकिया-(नै) दीन छै० सु० खोलह देजो० महाजन भटारकी नु खग-य छै संवत् १७०५ वैसख बद ५ श्री अवरंगाबाद।
इस उपाश्रयमें यतिवर्य हितवल्लभ जी (हिमतू जी ) की प्रेरणासे कई यतियोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंके संग्रहरूप वृहद् ज्ञानभंडार स्थापित हुआ। यद्यपि इससे पहिले सतरहवीं शतीमें भी विक्रमपुर ज्ञानकोष का उल्लेख पाया जाता है पर अब वह नहीं है। इस भंडारके अतिरिक्त श्रीपूज्यजी का संग्रह भी महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है जिसका परिचय ज्ञानभंडारके प्रकरणमें दिया गया है। इस उपाश्रय में वृहत्खरतर गच्छीय श्रीपूज्यों की गद्दी है वर्तमान में भट्टारक श्रोजिनविजयेन्द्रसूरिजी श्रीपूज्य हैं। इसमें १३ गुवाड़ की पंचायती व कई मन्दिरों की वस्तुएँ भी रहती हैं। श्री पूज्यजी का वर्तमान तख्त व उपाश्रय के सन्मुख का हिस्सा श्रीमद् ज्ञानसार जी के सदुपदेश से जैन-संघ ने बनवाया था।
साध्वियोंका उपासरा यह बड़े उपाश्रय के पास की गली में साध्वियोंके ठहरने व प्राविकाओं के धर्म-ध्यान करने के लिये संघ ने बनवाया था अभी यहाँ कई खण हैं जिनमें भट्टारक और आचार्य खरतर शाखा की जतणियें रहती हैं।
खरतराचार्य गच्छका उपासरा वि० सं० १६८६ में श्रीजिनसिंहसूरिजी के पट्टधर भट्टारक श्री जिनराजसूरि व आचार्य श्रीजिनसागरसूरि किसी कारणवश अलग अलग हो गए। तबसे श्री जिनसागरसूरिजी का समुदाय खरतराचार्य गच्छ कहलाने लगा। यह उपाश्रय बड़े उपाश्रय के ठीक पीछे नाहटों की गुवाड़ में है संभवतः उपर्युक्त गच्छ भेद होनेके कुछ समय बाद ही इसकी स्थापना हुई होगी पर इसमें लगे हुए शिलालेख में यति मलूकचन्द जी के उपदेश से आचार्य गच्छीय संघ द्वारा यह
* पौषधशाला विपुला विनिर्मिता येन भूरि भाग्येन। मातुः पुन्याथं यन्माता मान्या सु धन्यानाम् ।। २५४ ।।
[कर्मचन्द मन्त्रिवंश प्रबन्ध ]
"Aho Shrut Gyanam"