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________________ (२९८) (३११) देवकुलिका नं. ५० - "श्रीशान्तिनाथप्रभु का आत्मबल मुक्तिरमणी के ललाट स्थित भौओं को आनन्द देनेवाला है और प्रभु के चन्द्रमा का मित्र (मृग) लंछन है जो दोष युक्त लोगों में नहीं पाया जाता।" सं० १४१२ आश्विनकु० ४ बुधवार के दिन कृत्तिका नक्षत्र में ओसवालज्ञातीय व्य० अभयपाल मार्या राजुलदेवी पुत्र व्य. बीकामल भार्या पूंजीबाई पुत्र डूंगर, पाल्हा, दोल्हाने समस्तपरिवार सहित अपने कुटुम्ब के कल्याणार्थ श्रीपार्श्वनाथचैत्यं में श्रीशान्तिनाथ की देव. कुलिका श्रीविजयसेनसूरि के शिष्य श्रीरत्नाकर' के उपदेश से बनवाई। (३१२) देवकुलिका नं० ५१ सं० १४८३ भाद्रपदकु०७ गुरुवार के दिन तपागच्छनायक श्रीदेवसुन्दरसूरि के पट्टधर श्रीसोमसुन्दरसूरि श्रीजयचन्द्रसरि श्रीभुवनसुन्दरसूरि के उपदेश से कलवानिवासी ओसवालज्ञातीय शां० मांडण, शा० शिवि के पुत्र देसाने जीरापल्लीतीर्थचत्य में देवकुलिकाका शिखर बनवाया। , १ लेखाङ्क ३२७ के अनुसार ये आचार्य ब्रह्माणगच्छीय है। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009682
Book TitleJain Pratima Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri, Daulatsinh Lodha
PublisherYatindra Sahitya Sadan Dhamaniya Mewad
Publication Year1951
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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