SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेक आचार्य हो गये हैं, परन्तु वे आगे पीछे हुए हैं और अगर कुछ एक ही नाम के एक ही समय में भी हो गये हैं तो भी गच्छ अलग अलग होने से वे थोड़े श्रम से अलग अलग वर्गीकृत किये जा सकते हैं। एक ही गच्छ में एक नाम के दो या अधिक आचार्य कभी भी एक समय में नहीं हो सकते, उनमें कुछ अन्तर रहता ही है ऐसी मर्यादा है । ऐसा करने से संवतों की भूल भले न निकले, लेकिन आचार्यमय गच्छ अनुक्रमणिकाओं में परस्पर एक और अनेक संवतों में मिल जाते हैं। कभी कभी गुरुपरम्परायें भी मिल जाती हैं। कभी एक ही आचार्य के दो या अधिक कुछ या सर्वांशतः मिलते हुए लेख एक या अन्य पुस्तकों में इस प्रकार यत्न और श्रम से निकल आते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि संवतों की त्रुटिया भी यथासंभव दूर की जा सकती हैं और शासनकाल और शताब्दियों की त्रुटियाँ तो अनेक सुधारी जा सकती हैं। लेखों में आये हुए गृहस्थों के नामों की भी अगर वर्णानुक्रम से अनुक्रमणिकायें ज्ञाति, गोत्र और संवत् लेखाङ्क के साथ साथ हो तो एक ही दिन, तिथि और माह-संवत् के कमी कभी एक ही वंश के एक ही पुरुषों या कुछ पुरुषों के नामों से गर्मित एक-दो लेख एक या अन्य पुस्तकों में क्रम से मिल जाते हैं और आचार्य के नाम और गच्छ में रही त्रुटियाँ बहुत अधिक दर की जा सकती है और इनसे उनकी "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009682
Book TitleJain Pratima Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri, Daulatsinh Lodha
PublisherYatindra Sahitya Sadan Dhamaniya Mewad
Publication Year1951
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy