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(२) कि-मैं इतना अस्वस्थ और अशक्त हूं कि शिला-लेखों का अनुवाद, अनुक्रमणिकां आदि करने में अपने को असमर्थ पाता हूं। मेरी प्रार्थना पर वे प्रतियें मुझको दे दी गई । मुझ से जैसा बन पड़ा, वैसा संपादन एवं अनुवाद पाठकों के सामने हैं। संपादन कला
ऐसी पुस्तकें नहीं तो मैंने लिखी ही हैं और नहीं संपा. दित ही की हैं। शिला-लेख सम्बन्धी पुस्तकों का संपादन भी एक अलग कला है । उस पर दो शब्द लिखना कभी मी अप्रासंगिक नहीं है। शिला-लेखों का अनुवाद करने बैठने के पूर्व शिला-लेख सम्बन्धी साधन-सामग्री अधिक से अधिक संग्रह करनी चाहिये । तत्पश्चात् प्रारम्भ में प्रतिष्ठा करानेवाले आचार्यों की वर्णानुक्रम से अनुक्रमणिका का गच्छ, संवत् और लेखाडों के उल्लेख के साथ साथ निर्माण करना अत्यन्त लामदायक है। जब यह अनुक्रमणिका विनिर्मित हो जाय तब ऐसी अन्य पुस्तकों की अनुक्रमणिकाओं को इस दृष्टि से देखिये कि आप की पुस्तक में आये हुए आचार्यों के नाम उन पुस्तकों की कनुक्रमणिकाओं में आये हैं ? एक ही नाम के अनेक आचार्य हो गये हैं, लेकिन इससे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं। एक ही नाम के यद्यपि एक और विभिन्न-विभिन्न गच्छोंमें
"Aho Shrut Gyanam"