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देहरी बावनमें विंब दोपतो, पांचसे पेंतालीस । पाटि सेजे जिन्नू प्रजुजीके, प्रेम धरि प्रणमीस ॥ जि० १७ श्कसौ वेतालीस विहूं चौकमें, ऊंचै मएमप वार । मूल गंजारै देहासर नमू, सौ इक चवदे सार । जि० १ए तिसके तोरण वीजे तोरणे, विंब वास नै वार । नेवीस पास मंडप रे तिकै, सो प्रणमुं श्रीकार ॥ जि० २० संवत वारेसे वारोत्तरे, ( १२१५ ) यो जैसलगढ़ जाण । थाप्यो सेते कीरत थंन ज्यूं. मोटो चैत्य मंडाण ॥ २१
[ कलस] इम महा था प्रासाद महेि विंब पेंतालिससै । चौरासी उपर सरब जिनवर वदतां चित्त जब्बसे ॥ उख जाय रै सुख पूरै संघनै संपति कर। संथुण्या श्री जिनसुखसूरै सतरसे कहोत्तरइ ( १७७१ ) ॥ २५ ॥
इति भी जिनसुखसूरि कृत चैत्यपरिपाटी स्तवन सम्पूर्ण ।
"Aho Shrut Gyanam"