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जैसे ग्रन्थारम्भ में रचयिता को नाना प्रकार की कठिनाईयां झेलनी पड़ती हैं वैसे हो ग्रन्थ समाप्ति के समय उन्हें एक अनिर्वचनीय आनन्द का भी अनुभव होता है । आज इस भूमिका की समाप्ति के समय मेरे इस कार्य में सहायता देनेवाले सज्जनों को अपनी ओर से पूर्ण कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए मुझे भी वहो अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ है। सर्व प्रथम वयोवृद्ध दधिमति ब्राह्मण कुलोद्भूत स्वनाम ख्यात ऐतिहासिक विद्वान मेरे मिल जोधपुर निवासी पं० रामकरणजी का आभार मैं सर्वान्तःकरण से मानता हूँ | आपने मेरे अनुरोध पर बाधायें रहते हुए भी मेरे साथ सहर्ष जैसलमेर चलने की कृपा को थी । जैसलमेर के प्रसिद्ध बैंकर्स सेठ हजारीमलजी राजमलजी साहब ने भो आज तक मुझे इस कार्य में उत्साहित करने की जो उदारता दिखलाई है वह भी प्रशंसनीय है। वहां के स्टेट इंजीनियर बाबू नेपालचन्द्रजी दत्त के विषय में मैं आगे ही लिख चुका हूं, उनका मैं विशेष कृत हूं। वहां के मेरे सहायकों में खरतरगच्छीय यति महाराज श्रीमान् पं० वृद्धिचन्द्रजी के शिष्य पं० लक्ष्मोचन्द्रजी यति महोदय भी विशेष उल्लेखनीय हैं। इतना ही लिखना बाहुल्य होगा कि दादास्थान आदि सहर से दूरी पर के स्थानों के लेखों के संग्रह करने में मुझको सहायता पहुंचाने के अतिरिक्त लोद्रवा ब्रह्मसर आदि के विषय में जो कुछ यहां लिखा गया है अधिकतया इनकी कृपा से ही प्राप्त हुआ था इस लिये इन का भी मैं सह
आभार मानता हूँ । इस पुस्तक में मेरे मध्यम और तृतीय पुत्र श्रीमान् पृथ्वीसिंह नाहर बी० ए० और श्रीमान् विजय सिंह नाहर बी० ए० उन लोगोंने अपनी योग्यतानुसार मेरे कार्य में जो कुछ सेवा पहुंचाई है इस कारण उन लोगों को आशिर्वाद देता हूँ । पुस्तक प्रकाशित करने में कापो से लेकर जिल्द बंधाई तक जो परिश्रम, कठिनाई और अर्थव्यय होता है वह सुज्ञ पाठक अच्छी तरह जानते ही होंगे। मैं उपरोक्त समस्त विषय में यथाशक्ति कर्त्तव्य पालन करने की चेष्टा की है परन्तु मेरो शारीरिक अक्षमता के कारण बहुत सी बुटियां मिलनी सम्भव हैं। आशा है कि उसे पाठक अपने उदार गुण से क्षमा करेंगे । अलमति विस्तरेण
४८, इन्डियन मिरर स्ट्रीट,
कलकत्ता ।
सं० १९८५ ई० सन् १९२६
"Aho Shrut Gyanam"
निवेदक पुरणचन्द नादर