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ग्रामी लिपि अक्षरों में (लिपिपत्र ३) दिया गया है. 'ऐ', 'ए' के अग्रभाग के साथ बाई ओर एक बाड़ी लकीर जोड़ने से बनना था जैसा कि हा गुंफा के लेख में मिलता है ( देखो, लिपिपत्र ३). 'औ' का प्राचीन रूप अशोक के लेखों में अथवा गुप्तों के समय के पूर्व के किमी लेख में नहीं मिलता. उसका अशोक के समय का रूप होना चाहिये. 'क' बुद्धगया
मंदिर के स्तंभ पर मिलता है जिसकी माकृति । है.'' का रूप बिलकुल वृत्त ० है और वह देहली के सवालक स्तंभ पर के अशोक के लेख में मिलता है (देखो, लिपिपत्र २).'श' और 'प'अशोक के खालसी के लेख में मिलते हैं (देखो, लिपिपत्र २).
इस लेख में बहुतेरे अक्षरों के एक से अधिक रूप मिलते हैं. संभव है कि कुछ तो उस समय भिन्न भिन्न रूप से लिखे जाते हो परंतु यह भी हो सकता है कि उक्त लेख का लेखक जैसे शुद्ध लिखना नहीं जानता था वैसे ही बहुत सुंदर अक्षर लिखनेवाला भी न था;क्योंकि इस लेख की लिपि वैसी सुंदर नहीं है जैसी किमयोक के देहली के सवालकस्तंभ और पंडरिया (रुमिंदेई) के स्तंभ के लेखों की है, और जैसे उनमें भक्षर तथा स्वरों की मात्राओं के चिक एकसा मिलते हैं वैसे इस लेख में नहीं हैं. यह भी संभव है कि लेखक सिद्धहस्त न हो और स्वरा से लिखता हो जिससे अत्तर एकसा नहीं लिव सका, इसीसे कहीं सीधी खड़ी लकीर को तिरछा ( देखो, उ, झ, न और प के दूसरे रूप) या गोलाईदार (देखो, ग और फ के दूसरे रूप) कर दिया है और कहीं गोलाईदार को तिरछा (देखो, 'म'का चौथा रूप और 'य' का तीसरा रूप) बना दिया है. लिपिपत्र पहिले की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरातर
इयं धमलिपी देवामं प्रियेम प्रियदसिना रामा लेखापिता धन किषि जीवं पारभित्या प्रजाहितब्ध न च समाजो कतव्यो बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवामं प्रियो प्रियदसि राजा अस्ति पि तु एकचा समाजा साधुमता देवानं प्रियस प्रियदसिमो रामो पुरा महामसम्हि देवानं प्रियस प्रियदसिनो रामो अनुदिव य.
लिपिपत्र दूसरा. यह लिपिपत्र देहली के सवालकस्तंभा, खालसी, जोगमुर और सिद्धापुर' के घटानों तथा रधिमा, सारनाथ और सांधी के स्तंभों पर खुदे हुए अशोक के लेखों के फोटों से बनाया गया है और इसमें बहुधा के ही भक्षर लिये गये हैं जिनमें लिपिपत्र पहिले के अक्षरों से या तो कुछ भिन्नता पाई जाती है या जो लिपिपत्र पहिले में नहीं मिले. यह भिन्नता कुछ तो देशभेद से है और कुछ लेखक की रुचि और स्वरा से हुई है.
देहली के सबालक स्तंभ के लेख की लिपि बड़ी सुंदर और जमी हुई है और वह सारा लेख सावधानी के साथ लिखा गया है. उसमें 'मा' में 'मा' की मात्रा का धिक ऊपर नहीं किंतुमध्य में लगा
१. ई. जि. १३, पृ. ३०६.१० के बीच के सेट.
मा.स. स. जि.१,सेट ६७-६६. ४. पं. जि.२.पू. २४८-४९ के बीच के सेट. ... जि.२,पू. ३६ के पास का प्लेट,
६. . ई. जि. २, पृ. ४५०-६० के बीच के सेट. ४. जि.३, पृ. १३८-४० के बीच के सेट. . पं. जि.८, पृ. १६८ के पास का प्लेट.
Ano! Shrutgyanam