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________________ माह्मी लिाय की उत्पत्ति. ग्रानी से निकली हुई ई.स. की पांचवीं और छठी शताब्दी की गुप्त और तेलुगु-कनड़ी लिपियों के बीच पाई जाती है, परंतु उन दोनों (ब्राह्मी और खरोष्ठी) में एक भी अक्षर की समानता का न होना भी यही सिद्ध करता है कि ये दोनों लिपियां एक ही मूल लिपि मे सर्वथा नहीं निकलीं, अर्थात् खरोष्ठी सेमिटिक से निकली हुई है और ब्राधी समिटिक से नहीं. फिनिशियन लिपि से ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति मानने का सिद्धान्त कहां तक प्रामाणिक और स्वीकार करने योग्य है इसका विचार यहां तक किया गया. अब बुलर के इस दूसरे कथन की समीक्षा भावश्यक है कि 'ब्राह्मी लिपि पहिले दाहिनी ओर से बाई और लिखी जानी थी.' बृलर को फिनिशिअन् लिपि से ब्रानी की उत्पति सिद्ध करने के यत्न में कितने एक पत्रों का रुख बदलने की आवश्यकता थी. ई.स. १८९१ में जनरल कनिंगहाम ने 'कॉइन्स ऑफ एनयंद रिमा'नामक भारतवर्ष के प्राचीन सिकों के विषय का एक पुस्तक प्रकट किर। जिसमें एरण' से मिले हए की एक तांबे के सिक्के भी छापे. उनमें से एक पर का ब्राह्मी लिपि का मोव 'धमपालस', दाहिनी ओर से बाई ओर को पढ़ा जाता है. इस उलटे लेख के तिनके के सहारे को बूलर नेते महत्व का माना और इसीके आधार पर अपनी 'ब्राह्मी लिपि की उत्पति' विषयक पुस्तक में लिखा कि सेमिटिक से प्राधी लिपि की उत्पति सिद्ध करने के प्रमाणों की स्टंखला को पूर्ण करने के लिये जिस कड़ी की त्रुटि थी वह वास्तव में यही है तथा उस सिक्के को ई.स. पूर्व ३५० के पास पास का मान कर यह सिद्धांत कर लिया कि 'उस समय ब्राह्मी लिपि दाहिनी भोर से बाई भोर तथा बाई ओर से दाहिनी ओर (दोनों तरह) लिखी जाती थी. इस कल्पना का मुख्य आधार परण का मिका ही है. क्योंकि अब तक कई शिलालेख पस देश में ऐसा नहीं मिला कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फारसी की नाई उलटी लिग्वी एई मिली हो। किसी सिले पर लेख का उलटा पा जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि सिके पर उभरे हुए श्रदर सीधे पाने के लिये सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं अर्थात् जो लिपियां बाई ओर से दाहिनी ओर (जैसे कि ब्राह्मी और उससे निकली हुई सब लिपियां और अंगरेजी भी) लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिके की इबारत की पंक्ति का प्रारंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु यदि खोदनेवाला इसमें चूक जाय और उप्पे पर बाई ओर से खोदने लग जाय तो सिके पर सारा लेख उलटा पा जाता है, जैसा कि एरण के सिके पर पाया जाता है. यदि यह एक ई.स. १८९४ में मैन 'माचीनलिपिमाला' का प्रथम संस्करण छापा, जिसकी एक प्रति डॉ.बूलर को भर की. इसकी पहुंच स्वीकार करने के सारो बूसर ने लिखा कि तुम आह्मी लिपि को भारतवासियों की निर्माण की हे स्वतंत्र लिपि मानते हो यह ठीक नहीं. ब्राह्मी लिपि सेमिटिक लिपि से निकली हुई है. इसके उत्तर में मैंने लिखा कि 'यदि बाली और खरोष्टी दोनो लिपियां एक ही मूल लिपि की शाखे है तो ७०० वर्ष के भीतर ही उनमें परस्पर एक भी अक्षरको समानता न रही इसका क्या कारण है सो श्राप कृपा कर सुवित्त कीजिये.' परंतु इसका कुछ भी उत्तर वेन मके और म अब भी कोई द सकता है. १. मध्य प्रदेश के सागर जिले का एक प्राचीन नगर. ३. क कॉ. प. पु.१०१: प्लेट ११, मंगया १८. . ई. स्ट; संख्या ३, पृ. ३(ई.स. १८६५). ईस्ट; संस्था ३, ४३. इलर ने लिखा है कि 'अशोक के लेखों में दाहिनी और मे बाई ओर लिखने के विक बहुत कम मिलते है. जोगड और धौली के लेलों में 'श्री' उलटा है: और जौगइ तथा देहली के सिवालिक स्तंभ के लेख में 'ध' कचिस् उला मिलता है ( ई.प: पृ.), परंतु ये नो मामूली लेखकों के हस्तदोण या देशभेद के गुच्छ अंतर है. क्योकि 'मो' की मोक्रति, एक खड़ी लकीर के ऊपर के छोर से बाई ओर को और नीचे के छोर से दाहिनी ओर को एक एक मादी लकी. रखीचने से, बनती है. यह संभव है कि असावधान लेखक पहिले खड़ी लकीर खींच कर बाड़ी लकीरें खीचने में गलती कर जाधे. 'ध' की आकृति धनुष के सरश होने के कारण उसकी प्रत्येचा चाहे दाहिनी तरफ़ रहे या बाई तरफ इसमें मा. सूती अनपढ़ लेखक शायद ही फर्क माने. देशभेद से भी कभी कभी किसी प्रक्षर की मारुति उलटी लिखी मिलती है जैसे कि.स.की छठी शताब्दी के यशोधर्मन् के लेख मैं 'उ' भागरी के 'उ'का सा है (देखो लिपिए १८ यां) परंतुलसी शताबी के गालक सिंहादित्य के दामपत्र में उससे उत्तरी (लिपिपत्र ३८). धर्तमान बंगला लिपिका' स्टा Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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