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प्राचीनलिपिमाला.
और भोजपत्र प्रकृति ने यहां बहुत प्रचुरता से उत्पन्न किये हैं. मिसर के पपायरस की तरह उन्हें खेती करके प्राप्त करने की यहां आवश्यकता न थी. भारतवासी रुई से कागज बनाना भी ई.स. पूर्व की चौथी शताब्दी से पहिले जान गये थे. पुराणों में पुस्तक लिखवा कर दान करने का बड़ा पुण्य माना गया है. चीनी यात्री घुम्त्संग यहां से चीन को लौटते समय बीस घोड़ों पर पुस्तकें लाद कर अपने साथ ले गया जिनमें ६५७ भिन्न भिन्न पुस्तक' थे. मध्यभारत का श्रमण पुण्योपाय ई.स. ६५५ में १५०० से अधिक पुस्तक लेकर चीन को गया था, ये बौद्ध भिक्षु कोई यूरोप या अमेरिका के धनाक्ष्य तो थे नहीं कि यहां तोड़े खोल कर पुस्तक मोल लें. उन्हें जितने पुस्तक मिले वे गृहस्थों, भिक्षुओं, मठों या राजाओं से दान में मिले होंगे. जब दान ही दान में इतने ग्रंथ उनको मिल गये तो सहज ही में अनुमान हो सकता है कि लिखित पुस्तकों की यहां कितनी प्रचुरता थी.
१. 'पायरस' बरू (सरकंडा) की जाति के एक पौधे का नाम है, जिसकी खेती मिसर में नाइल नदी के मुहानों के बीच के दलदल वाले प्रदेश में बहुत प्राचीन काल से होती थी. यह पौधा. चार हाथ ऊंचा और इसका डंठल तिधारा या त्रिकोण प्राकृति का होता था, जिसमें से 4 इंच से रंच तक की लंबाई के टुकड़े काटे जाते थे. उनकी छाल (न कि गूदे से, देखो पं.सा.नि. जिल्द ३३, पृ. ८११) से बहुत कम चौड़ाई की चिंधियां निकखती थी. उनको लेई आदि से एक दूसरी से चिपका कर पत्रा बनाया जाता था. ये पत्रे पहिले दबाये जाते थे फिर उनको सुखाते थे. जब वे बिलकुल सूख जाते तब हाथीदांत या शंख से घोट कर उनको चिकना और समान बनाते थे, तभी वे लिखने योग्य होते थे. इस प्रकार तय्यार किये हुए पत्रों को यूरोपवाले यायरस्' कहते हैं. उन्हीं पर पुस्तकें. चिट्टियां तथा आवश्यकीय तहरीर आदि लिखी जाती थी, क्योंकि उस समय कागज़ का काम ये ही देते थे. इस प्रकार तय्यार किये हुए कई पत्रों को एक दूसरे के साथ चिपका कर उनके लंबे लंबे खरड़े भी बनाये जाते थे, जो मिसर की प्राचीन कारों में से मिल पाते हैं. वे या तो लकड़ी की संदूकों में यलपूर्वक रक्खी हुई लाशों के हाथों में रक्खे हुए या उनके शरीर पर लपेटे हुए मिलते हैं. मिसर मै ई.स. पूर्व २००० के पास पास तक के ऐसे खरहे (पायरस) मिले हैं, क्योंकि यहां वर्षा का प्रायः प्रभाव होने से ऐसी वस्तु अधिक काल तक नष्ट नहीं होती. लिखने की कुदरती सामग्री सुलभ न होने से ही बड़े परिश्रम से उक्त पौधे की छाल की चिधियों को सिपका चिपका कर पत्रे बनाते ये तिस पर भी उसकी खेती राज्य के हाथ में रहती थी. यूरोप में भी प्राचीन काल में सेलमसामग्री का अभाव होने से चमड़े को साफ कर उसपर भी लिखते थे. ई. स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी में ग्रीक लोगों ने मिसर से बने बनाये 'पॅपायरस' अपने यहां मंगवाना शुरू किया. फिर यूरोप में उनका व्यवहार होने लगा और भरतों के राजत्यकाल में इटली आदि में वह पौधा भी बोया जाने लगा. जिससे यूरोप में भी 'पंपायरस' तय्यार होने लगे. ई.स. ७०४ में अरयों ने समरकंद नगर विजय किया जहां पर उन्होंने पहिले पहिल कई और चीथड़ों से कागज़ बनाना सीखा, फिर दमास्कस ( दमिश्क ) में भी कागज़ बनने लगे. ई.स. को नवीं शताब्दी में अरबी पुस्तके प्रथम ही प्रथम कागजों पर लिखी गई और १२ वीं शताब्दी के आस पास अरबों द्वारा कागज़ों का प्रवेश यूरोप में हुआ. फिर पायरस' का बनना बंद होकर यूरोप में १३ वीं शताब्दी से कागज़ ही लिखने की मुख्य सामग्री हुई. २. देखो ऊपर पृ. ३, और टिप्पण ७. . स्मिः अ.
हिपृ. ३५२ (मृतीय संस्करण). - बु.नं: क. बु, थि: पृ.४३७.
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