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________________ भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनत रचना हुई और इसी लिये ज्योतिष, वैद्यक आदि के ग्रंथ भी बहुधा रलोकबद्ध लिम्बे जाने लग, और दो और, कोश के सदृश ग्रंथ भी रलोकबद्ध लिग्वे गये कि कंटस्थ किये जा सके और अंकगणित नथा बीजगणित के नियम और उदाहरण भी श्लोकों में लिखे गये. लोकबद्ध कोशों को देख कर यदि कोई यह अटकल लगावे कि इनकी रचना के समय हेग्यप्रणाली न थी अथवा लेखनसामग्री की कमी थी, या लीलावनी के श्लोकबद्ध नियमों और उदाहरणों से यह कहा जाय कि हिसाब जपानी ही होते थे तो यह कहना वैसा ही है जैसा कि यह कहना कि व्याकरण के सूत्र. कल्पसूत्र, ब्राह्मण नया वेदों तक की रचना जबानी ही हई. रचनाकाल में सब ग्रंथ विचारपूर्वक लिखकर ही बनाये गये, केवल अध्ययनप्रणाली में कंठस्थ करना ही मुख्य समझा जाता था. हिंद लोग प्राचीन रीतियों का धर्म की तरह भाग्रहपूर्वक पालन करते हैं और उनमें भरसक परिवर्तन नहीं करने. कपड़े से बने हुए कागज़ का बहुन प्रचार होने पर भी मंत्र, यंत्र आदि को भोजपत्र पर लिखना ही अब तक पवित्र माना जाता है. सस्ती और सुंदर छापे की पुस्तके प्रधलित हुए एक शताब्दी बीतने आई तो भी पूजापाठ में हस्तलिखित पुस्तकों का ही बहुधा प्रचार है और जो कर्मकांडी छपी हुई पद्धनि लेकर विवाह आदि कराने जाना है उसका बहधा मनावर होता है. जैसे आजकल कर्मकांडी या पौराणिक छुपी पुस्तकों पर से पढ़ते हैं परंतु कर्म या पारायण के समय बहुधा हस्तलिम्वित पुस्तक ही काम में लाते हैं वैसे ही प्राचीन काल में विचार, स्वाध्याय और व्याख्यान के लिये लिखित पुस्तक काम में आते थे, परंतु पदाना, मंत्रपाठ और शास्त्रार्थ मुल्य विद्या की पुरानी रीति से होता था. बलर लिखना है' कि 'इस अनुमान को रोकने के लिये कोई कारण नहीं है कि वैदिक समय में भी लिखित पुस्तके मौग्विक शिक्षा और दूसरे अवसरों पर सहायता के लिये काम में ली जाती थीं बोलिंग कहता है कि 'मेरे मन में साहित्य के प्रचार में लिम्वने का उपयोग नहीं होता था परंतु नये ग्रंधों के बनाने में इसको काम में लेने थे. ग्रंथकार अपना ग्रंथ लिन्न कर बनाता परतु फिर उसे या तो स्वयं कंठस्थ कर लेता या औरों को कंठस्थ करा देना. कदाचित् प्राचीन समय में एक बार लिग्वे ग्रंथ की प्रति नहीं उतारी जाती थी परंतु मूल लिग्विन प्रति ग्रंथकार के वंश में उसकी पवित्र यादगार की मरह रवी जामी और गुप्त रहनी थी. यह भी संभव है कि ग्रंथकार अपने ग्रंथ को कंठस्थ करके उसकी पनि को स्वयं नष्ट कर देना जिससे दसरे उसका अनुकरण न करें और अपने आप को ब्राह्मण जाति के विरुद्ध काम करने का दोषी न बनना रॉप लिखता है कि 'लिखने का प्रचार भारतवर्ष में प्राचीन समय से ही होना चाहिये क्योंकि यदि वेदों के लिखित पुस्तक विद्यमान न होने तो कोई पुरुष प्रानिशाख्य बना न सकता.' प्राचीन काल में हिंदुस्तान के समान लेग्वनसामग्री की प्रधुरना कहीं भी न थी. ताड़पत्र समय पर पुस्तक देखना न पड़े और प्रसंग का विषय याद से सुनाया जा सके. इस तरह शास्त्र का प्राशय कंठस्थ रखने के लिये ही कितने एक विस्तृत गद्य प्रन्धों में भी मुख्य मुख्य बातें एक या दो कारिकाओं (संग्रहश्लोको) में उपसंहार की तरह लिली जाती थी, जैसे पतंजलि के महाभाग्य और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कई जगह १. गोलस्टकर की 'मानवकल्पसूत्र' के संस्करण की अंग्रेज़ी भूमिका (अलाहाबाद की छपी). पृ. ६६. इस विस्तृत भूमिका का मुख्य उद्देश मेषसमूलर के इस कथन का खंडन ही है कि वैदिक काल में लेखनप्रणाली न थी.' Amol Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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