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भारतीय संवत्
१८५ अबुलफजल ने 'मकबरमामे' में तारीख इलाही के प्रसंग में लिखा है कि'बंग (बंगाल)में लछमनसेन (लक्ष्मणसेन) के राज्य के प्रारंभ से संवत् गिना जाता है. उस समय से अब तक ४६५ वर्ष हुए हैं. गुजरात और दक्षिण में शालिवाहन का संवत् है जिसके इस समय १५०६ और
तथा देहली प्रादि में विक्रम का संवत् चलता है जिसके १६४१ वर्ष व्यतीत हुए हैं. इससे शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर (१५०६-४६५%) १०४१ पाता है.
डॉ. राजेंद्रलाल मित्र को मिले हए 'स्मृतितत्वात नामक हस्तलिखित पुस्तक के अंत में 'ल. सं. ५०५ शाके १५४६' लिखा है. इससे भी शक संवत् और लदमणसेन संवत् के बीच का अंतर (१५४६-५०५ = ) १०४१ आता है जैसा कि अबुलफ़ज़ल ने लिखा है.
नेपाल से मिले हुए 'नरपतिजयचर्या टीका' ( स्वरोदयदीपिका) नामक हस्तलिखित पुस्तक के अंत में शाके १५३६ ल स ४६४ लिखा है. यदि यह शक संवत् वर्तमान माना जाये तो गत १५३५ होगा. इससे भी शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर अबुलफजल के लिखे अनुसार ही माता है.
उपर्युक्त तीनों प्रमाणों के मापार पर शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर १०४१ होता है, परंतु तिरछत के राजा शिवसिंहदेव के दानपत्र में, जो जाली है, ल. सं. २६३ श्रावण सुदि गुरु वार लिह अंत में सन् ८०७ (१८०१) संवत् १४५५ शाके १२१ लिखा है, जिससे शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत् के बीच का अंतर (१३२१-२६३ = )१०२८ भाता है.
'द्विजपत्रिका की तारीख १५ मार्च ई.स. १८६३ की संख्या में लिखा है कि 'बल्लालसेन के पीछे उनके बेटे लक्ष्मणसेन ने शक संवत् १०२८ में बंगाल के सिंहासन पर बैठ कर अपना नया शक
समय उसकी अवस्था ६७ वर्ष होनी चाहिये. पसी दशा में प्रारंभ किए हुए बड़े ग्रंथ को समाप्त करने की शक्ति उसमें न रही हो जिससे राजपूतों की रीति के अनुसार विस्तर में मरना पसंद न कर पूर्ण वृद्धावस्था में धीरता के साथ प्रात्मघात करना पसंद सिया हो यह संभव है (गौः सो. प्रा. भाग १, पृ. ६५, टिप्पण) उपर्युक्त दोनों पंधों की रचना के श्लोकों से सो यही पाया जाता है कि ई. स. ११६६ के पीछे तक बहलालसेन जीवित था जिसके पीछे लषमणसेन ने स्वतंत्रतापूर्वक राज्य किया हो.
___ राखालदास बेनर्जी ने 'लक्ष्मणसेन नामक लेख में (ज.प. सो. अंगाई. स. १९१३, पृ. २७१-१०) यह सि करने की कोशिश की है कि लयमणसेन का राज्य ई. स. १९७० के पूर्व ही समाप्त हो चुका था, बल्तिभार खिलजी की मविमा की पढ़ाई के समय वहां का राजा सममरणसेन म था, 'वानसहमर' और 'प्रभुतसागर' की रचना के संवत् विषयक जो श्लोक मिलते हैं वे पिछले क्षेपक होने चाहिये, तथा 'मद्भुतसागर' की रचना के संवत् संबंधी श्लोक तो केवल एक ही प्रति में, जो डॉ. रामकृष्ण मोपाल भंडारकर को मिली, मिलते हैं.' उनके कथन का मुख्य प्राधार गया से मिले हुए दो शिलालेख है जिन में से पहिले के अंत में-'श्रीमल्लक्ष्मणसेनस्यातीतराज्ये सं ५१ भाद्रादिने २६' (पं. जि. १२. पृ. २६) और दूसरे के मन में-'श्रीमस्लमहासेनदेवपादानामतीतराज्ये सं ७४ वैशाख्वादि १२ गुरी' ( जि. १२. पृ. ३०) लिला है. इनमें से पहिले लेख के अतीतराज्ये' पद से लक्ष्मणसेन संवत् ५१ (ई.स. १३७० ) से पूर्ष लक्ष्मणसेन का राज्य प्रतीत' (समाप्त) हो चुका यह मान कर यख्तियार खिलजी की चढ़ाई के समय अर्थात् ११६६ (१२०० माना है) में लक्ष्मणसेन का विद्यमान ने होना बताया है परंतु हम उक्त कथन से सहमत नहीं हो सकते क्यों कि नविश्रा की चढ़ाई मिन्हाज उरिसराज की जीवितदशा की घटना थी, उक्त बढ़ाई के पीछे यह यंगाल में रहा था और बस्ति श्रार खिलजी के साथ रहने वालों से उसने वह हाल सुना था ऐसा वह लिखता है. ऐसे ही दानसागर और 'अभुतसागर' में मिलनेवाले उनकी रचना के समय संबंधी श्लोको को इपक नहीं कह सकते. अद्भुतसागर की एक ही प्रति में वे श्लोक मिलते हैं ऐसा हो नहीं कि राजपूताने में उसकी तीन प्रति देखने में आई उन सब में ये श्लोक है ऐसी दशा में बल्लालसेन का शक संवत् १०६५ (ई. स. ११६६ ) के पीछे तक जीवित रहना पाया जाता है. गया के लेखो के प्रतीतराज्ये सं' को 'मतीतराज्यसं' (जैसा कि राजालदास बेनर्जीके उन लेख में छपा है, पृ. २७१, २७२ ) पढना और 'अतीत' को 'राज्यसंवत्' का विशेषण माम कर 'गतराज्यवर्ष' अर्थ करना ही उचित है तब वे लेख लघमणसेन के राजस्वकाल केही माने जा सकते है।
१. ज.ए.सो. बंगा; जि.५७, भाग १. पृ. १-२. २. नोटिसिज़ माफ संस्कृत मनुस्किप्ट्स, जि. ६, पृ. १३ .. हा क. पाः पृ. १०६.
.. ई. : जि. १४. पृ. १५०. १६.१.
Ahol Shrutgyanam