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________________ इस प्रकार शन्दों से अंक बतलाने की शैली बहुत प्राचीन है. वैदिक साहित्य में भी कभी कभी इस प्रकार से अंक बतलाने के उदाहरण मिल भाते हैं जैसे कि शतपथ और सैसिरीय ब्राह्मणों में ४ के लिये 'कृत' शब्द, कात्यायन' और लाव्यायन श्रौतसूत्रों में २४ के लिये गायत्री' और ४० के लिये 'जगती' और घेदांग ज्योतिष में १, ४, ८, १२ और २७ के लिये क्रमश: 'रूप', 'अय', 'गुण', 'युग' और 'भसमूह' शब्दों का प्रयोग मिलता है. पिंगल के छंदःसूत्र में तो को जगह अंक इस तरह दिये हुए हैं. 'मूलपुलिरासिद्धांत' में भी इस प्रकार के अंक होना पाया जाता है. घराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका (ई.स. ५०५), ब्रह्मगुप्त के 'प्रा. स्फुटसिद्धांत'(ई.स.६२८), लक्ष के शिष्यधीवृद्धिद' (ई.स. ६३८ के पास पास) में तथा ई र की सातवीं शताब्दी के पीछे के ज्योतिष के प्राचार्यों के ग्रंशों में हज़ारों स्थानों पर शन्दों से अंक बसलाये हए मिलते हैं और अब तक संस्कृत, हिंदी, गुजराती भादि भाषाओं के कवि कभी कभी अपने ग्रंथों की रचना का संवत् इसी शैली से देते हैं. प्राचीन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों में भी कभी कभी इस शैली से दिये हुए अंक मिल माते हैं. मि.के ने भारतीय गणितशास्त्र' नामक अपने पुस्तक में लिखा है कि 'शब्दों से अंक प्रकट करने की शैली. जो असाधारण रूप से लोकप्रिय हो गई और अब तक प्रचलित है.स. की नीं शताब्दी के प्रासपास संभवतः पूर्व की भोर से [इस देश में ] प्रवृत्त हुई' (पृ. ३१). मि. के का यह कथन भी सर्वथा विश्वास योग्य नहीं है क्योंकि वैदिक काल से लगा कर ई. स. की सातवीं शमान्दी तक के संस्कृत पुस्तकों में भी इस शैली से दिये हुए अंकों के हजारों उदाहरण मिलते हैं. यदि मि.के ने घराहमिहिर की 'पंचसिद्धांतिका' को ही पढ़ा होता तो भी इस शैली के असंख्य उदाहरण मिल पाते. अक्षरों से अंक बतलाने की भारतीय शैली. ज्योतिष आदि के श्लोकबद्ध ग्रंथों में प्रत्येक अंक के लिये एक एक शब्द लिखने से विस्तार बड़ जाता था जिसको संक्षेप करने के लिये अक्षरों से अंक प्रकट करने की रीतियां निकाली गई. उपलब्ध ज्योतिष के अंधों में पहिले पहिल इस शैली से दिये हुए अंक आर्यभट (प्रथम) के मार्यभटीय' (भार्यसिद्धांत ) में मिलते हैं जिसकी रचना ई.स. ४६६२ में हुई थी. उक्त पुस्तक में अक्षरों से अंक नीचे लिखेअनुसार बतलाये हैं १. हुहोमसोम शर्मा (श.बा.३. ३.२.१). . चरबारः सोभा शाहत (ते. ग्रा१.५१९.१). .. रच्छिा बानोचम्पा मारतास पर टीका-जापनीचपना गावागहरसमामायापििनर्मायो रांचवा . मारास पर टीका-जगत्या सम्बका रासप प्राषिः । भगत्यचरसमाना पाचवारिमाको भाति (का.भी. पदेवर का संस्करण : पृ. १०१५). मारोपनाचिरा पासपोरपार जमनीपा राना (ला. श्री. स. प्रपाठक, कंडिका ४, सूत्र ३१), इस पर टीकामाचीसंपतिः । ... बनोसपा पारवारिकत्।। कमीन परवीनम् (याजुष, २३१ मार्च,दिरं पायवतम् ( याजुष, १३ मार्च, ४); रिक्षाभ्यो नाकार (मार्च, १६) पमहका सपरं सार (याजुष, २५) रिभ भासून ( याजुष, २० ). . समगसरा ( मंदाक्रांताकी यति). चारित्ययः (शार्दूलविक्रीडित की यति). सरभिरमाः (सषक्षमा की पति), परमः (अजंगषिमित की पति)-पिंगलछवासूत्र ..देखो, ऊपर पृ. ११६ रि.. . देखो, ऊपर पृ. ११६ दि. *... देखो, ऊपर पृ. ११७ टि... .देखो, ऊपर पू. ११७.टि. + १. रममावती की मन कासम रिमाल ( धौलपुर से मिले हुए बाहमान संगमहासेन के वि. सं. ८८ के शिलालेखसे(., जि.१५, पू. ). १. मिरिरहला मका (वीजाक्य मम्म दूसरे के समय के श.सं.८६७ के दानपन से..मि.७.११६) पीपरारिमारीपराधिकारी साबिसराभा नमाम्य (मार्यमटीय, माया), Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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