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________________ मध्यप्रदशी लिपि राजाओं तथा कुछ कर्दयों के दानपत्रों या शिलालेखों में मिलती है. इसलिपि के दामपत्र अधिक और विस्तृत रूप में मिलते हैं, शिलालेख कम और बहुधा छोटे छोटे. इसके अक्षर लंबाई में अधिक और चौड़ाई में कम होते हैं, उनके सिर चौकूट या संदूक की प्राकृति के बहुधा भीतर से खाली, परंतु कभी कभी भरे हुए भी, मिलते हैं और अक्षरों की प्राकृति बहुधा समकोणवाली (देखो, ऊपर पृ.४३). इससे इस लिपि के अचर साधारण पाठक को विलक्षण प्रतीत होते हैं परंतु इन दो बातों को छोड़ कर देखा जाये तो इस लिपि में और पश्चिमी लिपि में बहुत कुछ समता है. इस लिपि पर भी पश्चिमी लिपि की नाई उसरी शैली का प्रभाव पड़ा है. लिपिपत्र । यह लिपिपत्र वाकाटकवंशी राजा प्रवरसेन(दसरे) के दृदिशा सिवनी' और चम्मक के दानपत्रों से नय्यार किया गया है. दूदिया तगा सिवनी के दानपत्रों के अक्षरों के सिर चौकट और भीतर से ग्वाली हैं तथा अधिकतर अक्षर समकोणवाले हैं. परंतु चम्मक के दानपत्र के अक्षरों के चौकुंटे सिर भीतर से भरे हुए हैं और समकोणवाले अक्षरों की संख्या कम है. दूदिमा के दानपन्न से उद्धृत किये हुए अक्षरों के अंत में जो 'इ', 'ऊ और 'श्री अक्षर दिये हैं वे उक्त दानपत्र नहीं हैं. ''अजंटा की गुफा के लेग्वसंख्या ३ की पंक्ति १७ से' और 'श्री महासदेवराज के रायपुर के दानपत्र की १० वी पंक्ति में लिया है. उस नीनों दानपत्रों में कोई प्रचलित संवत् नहीं दिया परंतु यह निश्चित है कि प्रवरसेन(दसरा) गुप्तवंशी राजा चंद्रगुप्त दूसरे ( देवगुप्त) की पुत्री प्रभावतीगुप्ता का पुत्र था और चंद्रगुप्त दूसरे के समय के लेख गुप्त संवत् ८२ से १३ (ई.स. ४०१-१९) तक के मिले हैं. ऐसी दशा में प्रवरसेन (दूसरे) का ई.स. की पांचवीं शतान्दी के प्रारंभ के पास पास विद्यमान होना निश्चित है. लिपिपत्र ४१चे की मृल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर दृष्टम् प्रवरपुरात् अमिष्टोम(मा)प्तो-मोक्थ्यषोडश्यनिरो(रा)पवाजपेयपृहस्पतिसवसाद्यस्कचतुरश्वमेधयाजिनः विष्णुशक्षसगोयस्य सम्राट (जो) वाकाटकानामहाराजश्रोप्रवरसेनस्य सुनो। समोर अत्यन्तस्वामिमहाभैरवभक्तस्य सभारसविवेशितशिलि लिपिपत्र ४२ धां. यह लिपिपल बालाघाट से मिल हुए वाकाटकवंशी राजा पृथिवीसेन(दूसरे) केर, खरिधर से मिले हुए राजा महासुदेव के और राजीम मे मिले हुए राजा तीवरदेव के दानपत्रों से तय्यार किया गया है, तीवरदेव के दानपत्र में 'इ' की दो बिंदिनों के ऊपर की बाड़ी लकीर में विलक्षण मोड़ डाला है. खरिअर और राजीम के दानपत्रों का समय अनुमान लगाया है क्योंकि उनका निश्चित समय स्थिर करने के लिये अब तक ठीक साधन उपलब्ध नहीं हुए. १. पै. जि.७, पृ. १०४-६. जि.८, पृ. १७२-३. पल्लीगु. लेखसंख्या ८१.. १. प. जि. २१.१६३. रा .का जि. पू.२०० के पास का प्लेट. ...: जि.३, पृ.२६० और २६१ के बीच के सेट क्ली: गु प्लेट ३५ धां. 1. फ्ली; गु. सेट ३४. १ मा.स.के. जि.४, प्लेट ५७. . पलीगुप्लेट २७. म. ये मूल पंक्तियां प्रवरसेन (दूसरे) वृदिमा के मानपत्र से ई. १. . जि. ६, पृ.२७०और २७१ के बीच के प्लेटों से. १०. . है: जि. पृ. १७२ और १७३ के बीच के प्लेटी से. १. फ्ली; गु. प्लेट ४५ से. AhoriShrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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