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________________ ७४ प्राचीन लिपिमाला. पहिले शारदालिपि के लेख बहुत ही कम प्रसिद्धि में आये थे और ई. स. १९०४ तक तो एक भी लेख की प्रतिकृति प्रसिद्ध नहीं हुई थी, परंतु सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. फोजल ने ई. स. १९११ में बड़े श्रम के साथ चंया राज्य के शिलालेख और दानपत्रों का बड़ा संग्रह कर 'ऍटिकिटीज़ ऑफ चंबा स्टेट' नामक अपूर्व ग्रंथ प्रकाशित किया जिसमें प्राचीन लिपियों के अभ्यासियों के लिये शारदा लिपि की अमूल्य सामग्री है. लिपिपत्र २८ वां. यह लिपिपत्र सराहां की प्रशस्ति से तय्यार किया गया है. इसमें 'ए' के लिकोण की सिर के स्थान की आड़ी लकीर की बाई ओर चिक और जोड़ा है जो वास्तष में 'ए' की मात्रा का एक प्रकार का चिक है और कुटिल तथा नागरी लिपि के लेखों में ए, ऐ, श्री और औ की मालाओं में भी कभी कभी मिलता है. पीछे से यही चिक लंबा होकर खड़ी लकीर' के रूप में परिणत होगया (देखो, लिपिपत्र ३१ में बहादुरसिंह के दानपत्र का 'ए'). वर्तमान शारदा 'ए' में इस खड़ी लकीर के अतिरिक्त 'ए' के ऊपर भी नागरी की 'ए' की माता सी मात्रा भौर लगाई जाती है (देखो, लिपिपन्न ७७), 'द' के मध्य में ग्रंथि लगाई है.'श' और 'स' में इतना ही भेद है कि पहिले का सिर पूरे अक्षर पर है और दूसरे का दो अंशो में विभक्त है. 'त् तथा 'म्' में मूल अक्षरों के चित्र स्पष्ट नहीं रहे. 'ओ' की मात्रा का चिह्न कहीं भी है (देखो, 'यो'), 'औ' की मात्रा कहीं उक्त पिक के अतिरिक्त व्यंजन के सिर के अंत में 7 चित्र और जोड़ कर बनाई है ( देखो, 'मौ') और रेफ पंक्ति से ऊपर नहीं किंतु सीध में लगाया है. लिपिपत्र २८ ३ की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतरकिष्किन्धिकाधीशकुले प्रसूता सोमप्रभा नाम बभूव तस्य । देवी जगषणभूतमूर्तिविलोचनस्येव गिरीशपुत्रो । अपूर्वमिन्दुम्प्रविधाय वेधास्सदा स्फुरस्कान्तिकलामुक्त संपूर्णविम्ब(बिम्ब) के राजा जयचंद्र (जयचंद्र) के समय की दो प्रशस्तियां लगी है. जनरल कनिंगहाम ने बाबू (राजा) शिवप्रसाद के पठनानुसार उनका समय क्रमशः लौकिक ( सप्तर्षि ) संवत् ८०और गत शककाल ७२६ (इ. स. ८०४) माना था(क; मा. स.रि; जि. ३, पृ. १८०.८९ प्लेट ४२). फिर डॉ.बूलर ने ये प्रशस्तियां यापी (. जि. १, पृ.१०४-७, ११२-५) और पहिली का संषत् [सौकिक संघरसर ८० ज्येष्ठ शुक्ल १रविवार और दूसरी का गत शककाख ७[२६] होगा स्थिर किया. फिर उसी माधार पर इन प्रशस्तियों को शारदा लिपि के सबसे पुराने लेख, एवं उक्त लिपि का प्रचार ई. स. ८०० के आस पास से होना, मान लिया ( ई. पू.५७ ) प्ररंतु ई.स. १८मा में डॉ. कीलहॉर्न ने गणित कर देखा तो शक संवत् ६२६ से १४२६ तक की पाठ शताब्दियों के गत २६ वेंधों में से केवल शकसंवत् ११२६ ही एक ऐसा वर्ष पाया जिसमें ज्येष्ठ शुक्रको रविवार था. इस माधार पर उन विज्ञान ने इन प्रशस्तियों का ठीक समय शक संवत् ११२६ लौकिक संवत् ८० होना स्थिर किया (इ.एँ; जि.२०, पृ. १५४ ) और डॉ. फोजल ने मूल प्रशस्तियों को देखकर डॉ. कीलहॉर्न का कथन ही ठीक पतखाया ( फो। .. स्टे; पृ. ४३-४). ऐसी दशा में ये प्रशस्तियां न तो ई. स. ८०४ की मानी जा सकती है और न शारदा लिपि का प्रचार ई. स. के पास पास होना स्वीकार किया जा सकता है, दूसरी बात यह भी है कि जनरल कनिंगहाम ने जयचंद्र से पांच राजा जयचंद्रसिंह की गहीमसानी है. स. १३१५ में और ८ ये राजा रूपचंद्र की गद्दीनशीनी ई. स. १३६ में होना और उस (रूपचंद्र) काफ़ीरोज़ तुगलक (ई.स. १३६०-७०) के अधीन होना लिखा है (कॉ . मि. पृ.१०४). ऐसी दशा में भी जयचंद्र का ई. स. ८०४ में नहीं किंतु १२०४ में विद्यमान होना ही स्थिर होता है. फो। .. स्टे प्लेट १५. १. देखो, लिपिपत्र १ की मूल पंक्तियों में से दूसरी पंक्ति में 'विध'का 'हे', उसी पंक्ति में 'शत्रुसैन्य 'का'', और उसी लिपिपत्र में 'वो' और 'मौ. १. यही बड़ी सकीर नागरी में पड़ीमात्रा' (पृष्ठमाला) होकर ए, ऐ, मो और मौ की मात्रावाले मंजनो के पूर्व Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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