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अध्याय - ६
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतीचारो
ऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन
भक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥
[ दर्शनविशुद्धिः] 1- दर्शनविशुद्धि, [विनयसम्पन्नता] 2- विनयसम्पन्नता, [शीलव्रतेष्वनतीचारः] 3- शील और व्रतों में अनतिचार अर्थात् अतिचार का न होना, [अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः ] 4- निरन्तर ज्ञानोपयोग, [संवेगः] 5- संवेग अर्थात् संसार से भयभीत होना, [शक्तितस्त्यागतपसी ] 6-7- शक्ति के अनुसार त्याग तथा तप करना, [ साधुसमाधिः] 8- साधुसमाधि, [वैयावृत्त्यकरणम् ] 9- वैयावृत्त्य करना, [अहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिः ] 10-13- अर्हत्आचार्य-बहुश्रुत (उपाध्याय) और प्रवचन (शास्त्र) के प्रति भक्ति करना, [आवश्यकापरिहाणिः] 14- आवश्यक में हानि न करना, [मार्गप्रभावना] 15- मार्ग प्रभावना और [प्रवचनवत्सलत्वम् ] 16- प्रवचन-वात्सल्य [इति तीर्थकरत्वस्य] ये सोलह भावना तीर्थंकर-नामकर्म के आस्रव का कारण हैं।
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