SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां ईश्वर इन तीन पदार्थोंको मानना चाहिये । जीव और जगत शरीर रूप है और परब्रह्म शरीरी है। रामानुजका समय ११ वीं शताब्दी माना जाता है। वल्लभ-ये शुद्धाद्वैतके मुख्य प्रवर्तक गिने जाते हैं। इनके मतमें यह जगत परब्रह्मका ही अविकृत परिणाम है। इसे माया रूप समझकर ब्रह्म की विवर्त नहीं कह सकते। इसलिये ब्रह्मको माया रहित मानना चाहिये । ब्रह्मन् अंशी है तथा जीव और जड़ ब्रह्मके अंश हैं । जीव भक्तिके द्वारा ही परब्रह्मको प्राप्त करता है। शुद्धाद्वैतको अविकृत ब्रह्मवाद भी कहते हैं । वल्लभका समय ईसाकी १५ वीं शताब्दी है। विज्ञानभिक्ष-ये अविभागाद्वैतके स्थापक माने जाते हैं। केवलाद्वैत और शुद्धाद्वैतका इन्होंने खंडन किया है। इनके मतमें जिस प्रकार जलमें शक्कर डालनेसे शक्कर जलके साथ अविभक्त हो जाती है, उसी तरह पर जड़-अजड़ जगत परब्रह्ममें अविभक्त रूपसे रहता है । विज्ञानभिक्षुका समय ईसाकी १७ वीं शताब्दी है। श्रीकंठाचार्य-ये शक्तिविशिष्ट अद्वैतको मानते हैं। यह सिद्धांत अद्वैतवाद केवलाद्वैतके साथ मिलता जुलता है । अन्तर इतना ही है कि यहाँ ब्रह्मको सविशेष भावसे प्रधान, और निविशेष भावसे गौण माना गया है। ब्रह्मतत्त्व चित् शक्ति और आनन्द शक्तिसे युक्त है। यहाँपर इस शक्तितत्त्वको माया रूप अथवा अविद्या रूप न मानकर उसे चिन्मय माना गया है । श्रीकंठका समय १५वीं शताब्दी है। भट्टभास्कर-ये औपाधिक भेदाभेदको मानते हैं । भट्टभास्कर भेद और अभेद दोनोंको सत्य मानते हैं। ब्रह्म और जगतमें कार्य-कारण संबंध है। इसलिये कार्य और कारण दोनों ही सत्य हैं; कारणको सत्य और कार्यको कल्पित नहीं कहा जा सकता । भट्टभास्करका समय ईसाकी १० वीं शताब्दी माना जाता है। निम्बार्क-स्वाभाविक भेदाभेदको मानते हैं। इनके मतमें जगत ब्रह्मका परिणाम है, इसे काल्पनिक नहीं कह सकते । निम्बार्कके मतमें जीव और जगतको न ईश्वरसे सर्वथा अभिन्न कह सकते हैं, और न सर्वथा भिन्न । अतएव चेतन और अचेतनको ईश्वरसे भिन्नाभिन्न मानना चाहिये। निम्बार्कका समय ११वीं शताब्दी है। मध्व-मध्व द्वैत वेदान्ती माने जाते हैं । मध्वके अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे भेदकी हो सिद्धि होती है। पदार्थ दो तरहके होते हैं-स्वतंत्र और परतंत्र । ईश्वर स्वतंत्र पदार्थ है। परतंत्र पदार्थ भाव और अभावके भेदसे दो प्रकारके हैं । भावके दो भेद हैं-चेतन और अचेतन । चेतन और अचेतन ईश्वरके आधीन है। मध्वको पूर्णप्रज्ञ अथवा आनन्दतीर्थ भी कहा जाता है । मध्वका समय ईसाकी १२ वीं शताब्दी है।' शंकरका मायावाद कुछ लोगोंका कहना कि शंकराचार्यने मायावादके सिद्धांतोंकी रचना बौद्धोंके विज्ञानवाद और शून्यवादके आधारसे की है। बादरायणके ब्रह्मसूत्रोंमें, भगवद्गीतामें और बृहदारण्यक, छान्दोग्य आदि उपनिषदोंमें मायावादके सिद्धांत नहीं पाये जाते, विज्ञानभिक्षु शंकराचार्यको 'प्रच्छन्नबौद्ध' कहकर उल्लेख करते हैं, पद्मपुराणमें 'मायावाद' को असत् शास्त्र कहा गया है, तथा मध्व शून्यवादियोंके शून्य और मायावादियोंके ब्रह्मको एक बताते हैं । इससे मालूम होता है कि शंकर अपने परमगुरु गौड़पादके सिद्धांतोंसे प्रभावित थे। प्रोफेसर दासगुप्तके अनुसार ये गौड़पाद स्वयं बौद्ध विद्वान थे, और उपनिषदों और बुद्धके सिद्धांतोंमें भेद नहीं समझते थे। गौड़पादने माण्डूक्य उपनिषद्के ऊपर माण्डूक्यकारिका टीका लिखकर बौद्ध और औपनिषदिक सिद्धांतोंका समन्वय किया है। आगे चलकर गौड़पादके सिद्धांतोंका उनके शिष्य शंकराचार्यने प्रसार किया। प्रोफेसर ध्रव इस मतसे सहमत नहीं है। ध्रुवका मत है कि हीनयान बौद्धदर्शन ब्राह्मणदर्शनसे प्रभावित होकर ही महायान बौद्धदर्शनके रूपमें विकसित हुआ है। १. विशेषके लिये देखिये नर्मदाशंकरका हिंदतत्त्वज्ञाननो इतिहास उत्तरार्ध पृ० १७४-१८८ । २. गौड़पाद आचार्यकी माण्डूक्यकारिका और नागार्जुनकी माध्यमिककारिकाको तुलनाके लिये देखिये प्रोफे सर दासगुप्तकी A History of Indian Philosohpy Vol. I पृ. ४२३ से ४२८ । ३. देखिए प्रोफेसर ध्रुवकी स्याद्वादमंजरी पृ० ६२ भूमिका ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy