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________________ मीमांसक परिशिष्ट (ङ) ( श्लोक ११ और १२ ) मीमांसकोंके आचार विचार मीमांसक दर्शनको जैमिनीय दर्शन भी कहते हैं । मीमांसक लोग उपनिषदोंसे पूर्ववर्ती वेदोंको ही प्रमाण मानते हैं, इसलिये ये पूर्वमीमांसक कहे जाते हैं। मीमांसक धूममार्गके अनुयायी होते हैं । ये यज्ञ-यागके द्वारा देवताओंको प्रसन्न करके स्वर्गकी प्राप्ति ही अपना मुख्य धर्म समझते है ।' मीमांसक वैदिक हिंसाको हिंसा नहीं मानते, पितरों को तृप्त करनेके लिये श्राद्ध करते हैं, देवताओंको प्रसन्न करनेके लिये मांसकी आहुति देते हैं, तथा अतिथियोंका मधुपर्क आदिसे सत्कार करते हैं । पूर्वमीमांसावादियों को कर्ममीमांसक भी कहते हैं । " मीमांसक साधु कुकर्मसे रहित होते हैं, यजन आदि छह कर्मोंमें रत रहते हैं, ब्रह्मसूत्र रखते हैं, और गृहस्थाश्रममें रहते हैं । ये लोग सांख्य साधुओं की तरह एकदण्डी अथवा त्रिदंडी होते हैं । ये गेरुआ रंगके वस्त्र पहनते हैं, मृगचर्म के ऊपर बैठते है; कमण्डलु रखते हैं और सिर मुंडाते हैं। इन लोगोंका वेदके सिवाय और कोई गुरु नहीं है, इसलिये ये स्वयं ही संन्यास धारण करते हैं । मीमांसक साधु यज्ञोपवीतको धोकर पानीको तीन बार पीते हैं । ये ब्राह्मण हो होते हैं, और शूद्रके घर भोजन नहीं करते ।" अर्वाचीव पूर्वमीमांसक तीन प्रकार हैं- प्रभाकर ( गुरु ), कुमारिलभट्ट ( तुतात ) और मण्डन मिश्र भट्ट छह और प्रभाकर पांच प्रमाणोंको अंगीकार करते हैं । मीमांसकोंके सिद्धांत १. वेद - वेदको श्रुति, आम्नाय, छन्द, ब्रह्म, निगम, प्रवचन आदि नामोंसे भी कहते हैं । वेदान्ती लोगों की जिज्ञासा ब्रह्म के लिये होती है; जब कि मीमांसक लोगोंका अंतिम ध्येय धर्म ही होता है । मीमांसकों का मत है, कर्तव्य रूप धर्म अतीन्द्रिय है, वह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे नहीं जाना जा सकता। इसलिये धर्मका ज्ञान वेदवाक्योंकी प्रेरणा ( चोदना ) से हो होता है। उपनिषदोंका प्रयोजन भी वेदवाक्योंके समर्थन करनेके लिये ही है । अतएव वेदोंको ही प्रमाण मानना चाहिये । वेदोंका कोई कर्ता प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं होता है । जिन शास्त्रोंका कोई कर्ता देखा जाता है, उन शास्त्रोंको प्रमाण नहीं कहा जा सकता, इसलिये अपौरुपेय होने के कारण वेदको ही प्रमाण कहा जा सकता है । 3 वेद नित्य हैं, अबाधित हैं, धर्मके १. देवतां उद्दिश्य द्रव्यत्यागो यागः । यागादिरेव श्रेयसाधनरूपेण धर्मः । । २. एतेन क्रत्वर्थकर्तृप्रतिपादक प्रतिपादनद्वारेणोपनिषदां नैराकांक्ष्यं व्याख्यातम् । तन्त्रवार्तिक पृ० १३ । ३. नैयायिक लोग वेदको ईश्वरप्रणीत मान कर वेदके अपौरुषेयत्वका खंडन करते हैं वेदस्य कथमपौरुषेयत्वमभिधीयते । तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् । अथ मन्येथा अपौरुषेया वेदा: संप्रदायाविच्छेदे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वादात्मवदिति । तदेतन्मंदम् । विशेषणासिद्धेः । पौरुषेयवेदवादिभिः प्रलये संप्रदायविच्छेदस्य कक्षीकरणात् । किंच किमिदमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं नामाप्रमीयमाणकर्तृकत्वमस्मरणगोचरकर्तृकत्वं वा । न प्रथमः कल्पः । परमेश्वरस्य कर्तुः प्रमितेरभ्युपगमात् । न द्वितीयः । विकल्पासहत्वात् । तथाहि । किमेकेनास्मरणमभिप्रेयते सर्वैर्वा । नाद्यः । यो धर्मशीलो जितमानरोष इत्यादिषु मुक्तिकोक्तिषु व्यभिचारात् । न द्वितीयः । सर्वास्मरणस्या सर्वज्ञदुर्ज्ञानत्वात् । पौरुषेयत्वे प्रमाणसंभवाच्च । वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्यत्वात्कालिदासादिवाक्यवत् । वेदवाक्यान्याप्तप्रणीतानि प्रमाणत्वे सति वाक्यत्वान्मन्वादिवाक्यवदिति । ननु -
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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