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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३३७ इनके अतिरिक्त सनक, नन्द, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा वो आदि अनेक सांख्य विचारक हो गये हैं, जिनका अब केवल नाम शेष रह गया है । योगदर्शन । योगशब्द ऋग्वेदमें अनेक स्थलोंपर आता है, परन्तु यहाँ यह शब्द प्रायः जोड़नेके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । श्वेताश्वतर, तैत्तिरीय, कठ, मैत्रायणी आदि प्राचीन उपनिपदोमे योग समाधिके अर्थ में पाया जाता है । यहाँ योग के अंगों का वर्णन किया गया । आगे जाकर शांडिल्य, योगतत्त्व, ध्यानदिन्दु, हंस, अमृतनाद, वराह, नादबिन्दु, योगकुण्डली आदि उत्तरकालको उपनिपदोंमें यौगिक प्रक्रियाओं का सांगोपांग वर्णन मिलता है । सांख्यदर्शनके कपिल मुनिकी तरह हिरण्यगर्भ योगदर्शन के आदि वक्ता माने जाते हैं । हिरण्यगर्भ को स्वयंभू भी कहते हैं । महाभारत और श्वेताश्वतर उपनिप में हिरण्यगर्भका नाम आता है | पतंजलि आधुनिक योगसूत्रोंके व्यवस्थापक समझे जाते हैं ।" व्यासभाष्य के टीकाकार वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु भी पतंजलिका योगसूत्रों के कर्ता रूपमें उल्लेख नहीं करते । प्रो० दासगुप्त आदि विद्वानों के मतानुसार व्याकरण महाभाष्यकार और योगसूत्रकार पतंजलि दोनों एक ही व्यक्ति थे | पतंजलिका समय ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी माना जाता पतंजलि योगसूत्रों के ऊपर व्यासने भाष्य लिखा है । व्यासका समय ईसाकी चौथी शताब्दी कहा जाता है । ये व्यास महाभारत और पुराणकार व्यास से भिन्न व्यक्ति माने जाते हैं । व्यासके भाष्यके ऊपर वाचस्पति मिश्र तत्त्ववैशारदी नामकी टीका लिखी है । व्यासभाष्यपर भोज ( दसवी शताब्दी) ने भोजवृत्ति, विज्ञानभिक्षुने योगवार्तिक और नागोजी भट्ट ( सतरहवीं शताब्दी) ने छायाव्याख्यामकी टीकायें लिखी हैं । योगकी अनेक शाखायें हैं । सामान्य से योगके दो भेद है - राजयोग और हठयोग | पतंजलि ऋपिके योगको राजयोग कहते हैं । प्राणायाम आदिसे परमात्मा के साक्षात्कार करनेको हठयोग कहते हैं । हठयोगके ऊपर हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता आदि शास्त्र मुख्य है । ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोगके भेदसे योगके तीन भेद भी होते हैं। योगतत्त्व उपनिषद् में मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग और राजयोग इस तरह योगके चार भेद किये हैं 1 जैन और बौद्ध दर्शनमें योग महाभारत, पुराण, भगवद्गीता आदि वैदिक ग्रंथोंके अतिरिक्त जैन और बौद्ध साहित्य में भी योगका विशद वर्णन मिलता है। जैन आगम ग्रन्य और प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य में योग शब्द प्रायः ध्यानके अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। यहाँ ध्यानका लक्षण, भेद प्रभेद आदिका विस्तृत वर्णन मिलता है | योगविषयक साहित्यको पल्लवित करने में सर्वप्रथम हरिभद्रसूरिका नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । हरिभद्रने योगके ऊपर योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविंशिका, पोड़शक आदि ग्रन्थोंके लिखने के साथ पतंजलि के योगशास्त्रका पांडित्य प्राप्त करके पतंजलिके योगसूत्रोंके साथ जैनयोगको प्रक्रियाओंकी तुलना की है। हरिभद्र के योगदृष्टिसमुच्चय में मित्रा; तारा आदि आठ दृष्टियों का स्वरूप जैन साहित्य में बिलकुल अभूतपूर्व है । जैन योगशास्त्र के दूसरे विद्वान् हेमचन्द्रसूरि हैं । इन्होंने योगपर योगशास्त्र नामक स्वतंत्र ग्रंथ लिखकर अनेक जैन यौगिक प्रक्रियाओं का पतंजलिकी प्रक्रियाओंसे समन्वय किया है। हेमचन्द्र के योगशास्त्र में शुभचन्द्र आचार्य के ज्ञानार्णवमें आये हुए ध्यान आदिके वर्णनके साथ ध्यान, आसन आदिका विस्तृत वर्णन मिलता है । जैनयोग - साहित्यको वृद्धिंगत करनेवाले सतरहवीं सदी के अंतिम विद्वान् यशोविजय उपाध्याय माने जाते हैं । १. तुलना करो - ननु हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः । इति याज्ञवल्क्यस्मृतेः पतंजलिः कथं योगस्य शासितेति चेत् अद्धा । अतएव तत्र तत्र पुराणादो विशिष्य योगस्य विप्रकीर्णतया दुर्गाह्यार्थत्वं मन्यमानेन भगवता कृपासिंधुना फणिपतिना सारं संजिघृक्षुणानुशासनमारब्धं न तु साक्षाच्छासनम् । सर्वदर्शनसंग्रह १५ । ४३
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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