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________________ ३२८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां आचार्य उदयनने ईश्वर की सिद्धि में निम्न प्रमाणोंका उल्लेख किया है ( क ) सृष्टि कार्य है, इसलिये इसका कोई कारण होना चाहिये। (ख ) सृष्टि के आदिमें दो परमाणुओंमे संबंध होनेसे दृयणुककी उत्पत्ति होती है, इस आयोजन-क्रियाका कोई कर्ता होना चाहिये। ( ग ) सृष्टिका कोई आधार चाहिये। (घ) बुनने आदि कार्योंको सृष्टिके पहले किसीने सिखाया होगा, इसलिये कोई आदिशिक्षक होना चाहिये। (ङ) वेदोंमें कोई शक्तिका प्रदाता होना चाहिये। (च ) कोई श्रतिका बनानेवाला होना चाहिये। (छ) वेदवाक्योंका कोई कर्ता होना चाहिये। (ज) दो परमाणुओंके संबंधसे द्वयणुक बनता है, इसका कोई ज्ञाता होना चाहिये। ईश्वरविषयक शंकायें शंका-जगतके निर्माण करने में ईश्वरकी प्रवृत्ति अपने लिये होती है, अथवा दूसरेके लिये? ईश्वर कृतकृत्य है, उसकी सम्पूर्ण इच्छाओंकी पूर्ति हो चुकी है, अतएव वह अपनी इच्छाओंको पूर्ण करने के लिये जगतका निर्माण नहीं कर सकता। यदि ईश्वर दूसरों के लिये सृष्टिकी रचना करता है तो उसे बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता। करुणासे बाध्य होकर भी ईश्वरने सृष्टिका निर्माण नहीं किया, अन्यथा जगतके सम्पूर्ण प्राणियोंको सुखी होना चाहिये था। ईश्वरवादी-वास्तवमें करुणाके वशीभूत होकर ही ईश्वरकी सृष्टिके निर्माण करनेमे प्रवृत्ति होती है । ईश्वर भिन्न-भिन्न प्राणियोंके पुण्य और पाप कर्मोंके अनुसार सृष्टिका सर्जन करता है, इसलिये सर्वथा सुखमय सृष्टिको रचना नहीं हो सकती। जीवोंके अच्छे और बुरे कर्मोके अनुसार जगतको रचना करनेसे ईश्वरको स्वतंत्रतामें कोई बाधा नहीं पड़ सकती। क्योंकि जिस तरह अपने हाथ, पैर आदि अवयव अपने कार्यमें बाधक नहीं होते, इसी तरह जीवोंके कर्मोंकी अपेक्षा रखकर सृष्टिके निर्माण करने से ईश्वरको परावलम्बी नहीं कहा जा सकता। शंका-सृष्टिका बनानेवाला ईश्वर शरीर सहित होकर सृष्टि रचता है, अथवा शरीर रहित होकर ? यदि ईश्वरको सशरीर माना जाय तो ईश्वरको अदृष्टका विषय कहना चाहिये, क्योंकि सम्पूर्ण शरीर अदृष्टसे ही निश्चित होते हैं । इसी प्रकार ईश्वरको अशरीरो भी नहीं मान सकते, क्योंकि अशरीर ईश्वर सृष्टिको उत्पन्न नहीं कर सकता। ईश्वरवादी-जिस प्रकार शरीर रहित आत्मा शरीरमें परिवर्तन उत्पन्न करती है, उसी तरह अशरीरी ईश्वर अपनी इच्छासे संसारका सर्जन करता है। ईश्वरमें इच्छा और प्रयत्नकी उत्पत्ति होनेके लिये भी ईश्वरको सशरीरी मानना ठीक नहीं। क्योंकि ईश्वरकी इच्छा और प्रयत्न स्वाभाविक हैं, कारण कि हम लोग ईश्वरकी बुद्धि, इच्छा और प्रयत्नको नित्य स्वीकार करते हैं। अथवा परमाणुओंको ही सकते। इसलिये प्रयोजनमूलक अनुमानसे हम विश्वके नियामक अथवा संयोजक ईश्वरका ही अनुमान कर सकते हैं, इससे विश्वके रचयिता अथवा उत्पादक ईश्वरका अनुमान नहीं हो सकता। १. कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः । वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ॥ न्यायकुमसुमाञ्जलि ५-१। २. जे. एस. मिल ( J. S. Mill ) आदि पश्चिमके विद्वानोंने भी ईश्वरके विरुद्ध यह शंका उपस्थित को है । ३. अनुपभुक्तफलानां कर्मणां न प्रक्षयः सर्गमन्तरेण च तत्फलभोगाय नरकादिसृष्टिमारभते दयालुरेव भगवान् । उपभोगप्रबन्धेन परिश्रांतानामंतरांतरा विश्रांतये जंतूनां भुवनोपसंहारमपि करोतीति सर्व मेतत्कृपानिबंधमेव । न्यायमंजरी पृ. २०२।। ४. यत्पुनर्विकल्पितं सशरीर ईश्वरः सूजति जगद् अशरीरी वेति तत्राशरीरस्यैव सृष्टत्वमस्याभ्युपगच्छामः । ननु क्रियावेशनिबन्धकम् कर्तृत्वं न पारिभाषिक तदशरीरस्य क्रियाविरहात कथं भवेत् । कस्य च कुत्राशरीरस्य कर्तृत्वं दृष्टमिति । उच्यते । प्रयत्नज्ञानचिकिर्षायोगित्वं कर्तृत्वमाचक्षते । तच्चेश्वरे
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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