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________________ २९२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां नदियां बहती हैं। कामधातुमें चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित, निर्माणरति, परिनिर्मित और वशवर्ती ये छह प्रकारके देव रहते हैं। इन देवोंमें पहले और दूसरे प्रकारके देव परस्परके संयोगसे और बाकीके देव क्रमसे आलिंगन, हाथका संयोग, हास्य और अवलोकन करनेसे कामका भोग करते हैं। रूपधातुके देवोंमें अहोरात्रिका व्यवहार नहीं होता । अरूपधातुके देव चार प्रकारके होते हैं। श्लो. ११ पृ. ९० पं. ५ : भवतामपि जिनायतनादिविधाने राग-द्वेष युक्त असावधान प्रवृत्तिके द्वारा प्राणोंके नाश करनेको जैन शास्त्रोंमें हिंसा कहा है। संक्षेपमें हिंसाके द्रव्यहिंसा और भावहिंसा ये दो भेद हैं। किसी जीवके अत्यन्त यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करनेपर भी यदि उससे सूक्ष्म प्राणियोंका घात हो जाता है, तो वह जीव द्रव्यहिंसा करके भी हिंसक नहीं कहा जा सकता। तथा यदि कोई जीव कषाय आदिके वशीभूत होकर जीवोंको मारनेका संकल्प करता है, परन्तु वह 'जीवोंको द्रव्य रूपसे नहीं मारता तो भी उसे हिंसक कहा गया है। इसीलिये कहा है कि "यह जीव दूसरे जीवोंके प्राणोंको नाश करके भी पापसे युक्त नहीं होता," "तथा जीवोंका नाश हो, अथवा नहीं, लेकिन अयत्नाचारसे प्रवृत्ति करता हुआ यह जीव अवश्य ही हिंसक कहा जाता है।"२ अतएव जैन शास्त्रोंमें गृहस्थको केवल संकल्पसे होनेवाली हिंसाको छोड़नेका उपदेश दिया है। इसलिये पाक्षिक श्रावकको अपनी श्रद्धाके अनुसार जिनमंदिर, जिनविहार आदि बनानेका विधान है। यद्यपि जिनमंदिर आदिके बनानेमें आरंभजन्य हिंसा होती है, परन्तु इससे महान पुण्य का ही बंध होता है। जिस प्रकार कोई वैद्य रोगीकी चिकित्सा करते समय रोगीको होनेवाले दुखके कारण पापका उपार्जन न करता हुआ पुण्यका ही भागी होता है, इसीतरह जैन मंदिर, जैन मठ, जैन धर्मशाला, जैन वाटिकागृह आदि बनानेसे जीवोंका महान कल्याण होता है, इसलिये जैन मंदिर आदिके निर्माण कराने में शास्त्रीय दृष्टिसे दोष नहीं है। श्लो. ११ पृ. ९९ पं. १२ : आधाकर्म जैन शास्त्रोंमें मुनियोंके लिये निर्दोष आहार ग्रहण करनेका विधान किया गया है। साधारणतः यह आहार छियालीस प्रकारके दोषोंसे और आधाकर्म (अध.कर्म ) से रहित होना चाहिए । आहार ग्रहण करनेके समय आधाकर्मको महान दोष कहा गया है। आधाकर्ममें प्राणियोंकी विराधना होती है, इसलिये अधोगतिका कारण होनेसे इसे आधाकर्म कहा जाता है। अथवा मुनिके निमित्तसे बनाये हुए भोजनमें पांच सूनाओंसे १. विस्तृत विवरणके लिये देखिये अभिधर्मकोश 'लोकधातुनिर्देश' नामक तृतीय कोशस्थान; अभिधम्मत्थ संगहो, परि. ५। २. ( अ ) वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपुरुषस्मृतेविद्यते । वधाय न यमभ्युपैति च परान्न निघ्नन्नपि । त्वयायमतिदुर्गमः प्रथमहेतुरुद्योतितः ॥ सिद्धसेन-द्वा. द्वात्रिशिका ३-१६ । (आ) मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ सर्वार्थसिद्धि पृ २०५। (इ) यत्नतो जीवरक्षार्था तत्पीडापि न दोषकृत् ।। अपीडनेऽपि पीडैव भवेदयतनावतः ॥ यशोविजय-धर्मव्यवस्था द्वात्रिंशिका २९ । यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसाया पापसंभवः । तथाप्यत्र कृतारंभो महत्पुण्यं समश्नुते ॥ निरालम्बनधर्मस्य स्थितिर्यस्मात्ततः सताम् । मुक्तिप्रासादसोपानमाप्तैरुको जिनालयः॥ आशाघर-सागारधर्मामृत २-३५ टिप्पणी ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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