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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) २८३ वृद्धि होती है, और मनुष्योंकी आयु घटकर केवल दस वर्षकी रह जाती है। कल्पके अन्तमें सात दिन तक युद्ध, सात महीने तक रोग, तथा सात वर्ष तक दुर्भिक्ष पड़नेके बाद कल्पकी समाप्ति हो जाती हैं। इस समय अग्नि, जल और महावायुसे प्रलय ( संवर्तनो) होती है। प्रलयके समय देवता लोग पुण्यात्मा प्राणियोंको निर्वाध स्थानमें ले जाकर रख देते है। ग्रीक और रोमन लोगोंके यहाँ भी सुवर्ण, रजत, पीतल और लौह इस प्रकारसे चार युगोंकी कल्पना पायी जाती है। श्लो. १ पृ. ५ पं. ६ : केवली चार घातिया कर्मों के अत्यंत क्षय होनेपर जो केवलज्ञानके द्वारा इन्द्रिय, क्रम, और व्यवधान रहित तीनों लोकोंके सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंको साक्षात् जानते हैं, उन्हे केवलो कहते हैं। जैन शास्त्रोंमें अनेक तरहके केवलियोंका उल्लेख पाया जाता है १तीर्थकर-जो चतुर्विध संघ अथवा प्रथम गणधरको स्थापनापूर्वक जीवोंको संसार-समुद्रसे पार उतारते हैं, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थकर संसारी जीवोंको उपदेश देकर उनका उपकार करते हैं। तीर्थकर स्वयंबुद्ध होते हैं। तीर्थंकर चौबीस हैं। २ गणधर-तीर्थंकरके साक्षात् शिष्य और संघके मूल नायक होते हैं । गणधर श्रुतकेवली होते है। ये अन्य केवलियोंके भूतपूर्व गुरु होते हैं, और अन्तमें स्वयं भी केवली हो जाते हैं। महावीर भगवान्के ग्यारह गणधर थे । इन ग्यारह गणघरोंमें अकम्पित और अचल, तथा मेतार्य और प्रभास नामक गणधरोंकी भिन्न-भिन्न वाचना न होनेसे भगवान्के नौ गणधर कहे जाते हैं। ३ सामान्य केवली-तीर्थकर और गणघरोंको छोड़कर बाकी केवली सामान्यकेवली कहे जाते हैं। ४ स्वयंबुद्ध-जो बाह्य कारणोंके बिना स्वयं ज्ञान होते हैं, वे स्वयंबुद्ध है। तीर्थकर भी स्वयंबुद्धोंमें गर्भित हैं । इनके अतिरिक्त भी स्वयंबुद्ध होते हैं । ये संघमें रहते हैं और नहीं भी रहते । ये पूर्वमें श्रुतकेवली होते हैं और नहीं भी होते । जिनको श्रुत नहीं होता, वे नियमसे संघसे बाह्य रहते हैं। ५ प्रत्येकबुद्ध-प्रत्येकबुद्ध परोपदेशके बिना अपनी शक्तिसे वाह्य निमित्तोके मिलनेपर ज्ञान प्राप्त करते हैं, और एकल विहार करते हैं। प्रत्येकबुद्धको कमसे कम ग्यारह अंग और अधिकसे अधिक कुछ कम दस पूर्वोका ज्ञान होता है। ६ बोधितबुद्ध-गुरुके उपदेशसे ज्ञान प्राप्त करते हैं। ये अनेक तरहके होते हैं। ७ मुण्डकेवली-ये मूक और अन्तकृत् केवलोके भेदसे दो प्रकारके हैं। मूक केवली अपना ही उद्धार कर सकते हैं, परन्तु किसी शारीरिक दोषके कारण उपदेश नहीं दे सकते, इसलिये मौन रहते हैं। ये केवली बाह्य अतिशयोंसे रहित होते हैं, और किसी सिद्धांतकी रचना नहीं कर सकते। अन्तकृत्केवलीको मुक्त होनेके कुछ समय पहले ही केवलज्ञानको प्राप्ति होती है, इसलिये ये भी सिद्धांतको रचना करने में असमर्थ होते हैं। ८ श्रुतकेवली-श्रुतकेवली शास्त्रोंके पूर्ण ज्ञाता होते हैं। श्रुतकेवली और केवली ( केवलज्ञानी) ज्ञानको दृष्टिसे दोनों समान हैं। अन्तर इतना ही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष और केवलज्ञान प्रत्यक्ष होता है। केवली ( केवलज्ञानी ) जितना जानते हैं, उसका अनंतवां भाग वे कह सकते हैं, और जितना वे कहते हैं, उसका अनन्तवाँ भाग शास्त्रोंमें लिखा जाता है। इसलिये केवलज्ञानकी अपेक्षा श्रुतज्ञान अनन्तवें भागका भी अनन्तवा भाग है। सामान्यतः श्रुतकेवली छठे, सातवें गुणस्थानवर्ती और केवली तेरहवें गुणस्थानवर्ती १. अभिधर्मकोश ३.९७ के आगे; विसुद्धिमग्ग अ. १३; हार्डी का Mannual of Buddhism अ.१।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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