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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां देशनाभूमिकी स्तुति
विमुक्तवैरव्यसनानुबंधाः श्रयंति यां शाश्वतवैरिणोऽपि ।
परैरगम्यां तव योगिनाथ तां देशनाभूमिमुपाश्रयेऽहं ॥२४॥ अर्थ-हे योगियोंके नाथ ! स्वभावके वैरी प्राणि भी वैर भाव छोड़कर दूसरोंसे अगम्य आपके जिस समवशरणका आश्रय लेते हैं, उस देशनाभूमिका में भी आश्रय लेता हूँ।
अन्य देवोंके साम्राज्यकी व्यर्थता___मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन च संमदेन ।
__पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ॥२५॥
अर्थ-हे जिनेन्द्र ! मद, मान, काम, क्रोध, लोभ और रागसे पराजित अन्य देवोंका साम्राज्य-रोग बिलकुल वृथा है। बुद्धिमान लोग राग मात्रसे भगवान के प्रति आकर्षित नहीं होते
स्वकण्ठपीठे कठिनं कुठारं परे किरन्तः प्रलपन्तु किंचित् ।
मनीषिणां तु त्वयि वीतराग न रागमात्रेण मनोऽनुरक्तम् ॥२६॥ अर्थ-वादी लोग अपने गलेमें तीक्ष्ण कुठारका प्रहार करते हुए कुछ भी कहें, परन्तु हे वीतराग ! बुद्धिमानोंका मन आपके प्रति केवल रागके कारण ही अनुरक्त नहीं है। अपनेको मध्यस्थ समझनेवाले लोगोंमें मात्सर्यका सद्भाव
सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य न नाथ मुद्रामतिशेरते ते ।
माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये मणौ च काचेच समानुबंधाः ॥२७॥ अर्थ-हे नाथ ! जो परीक्षक माध्यस्थ वृत्ति धारण करके काच और मणिमें समान भाव रखते हैं, वे भी मत्सरी लोगोंकी मुद्राका अतिक्रमण नहीं करते-यह सुनिश्चित है। स्तुतिकारकी घोषणा
इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां वे ।
न वीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः ॥२८॥ अर्थ-मैं (हेमचन्द्र) प्रतिपक्षी लोगोंके सामने यह उदार घोषणा करता हूँ कि वीतराग भगवान्को छोड़कर दूसरा कोई देव, और अनेकांतवादको छोड़कर वस्तुओंके प्ररूपण करनेका दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जिन भगवान्के प्रति स्तुतिकारके आकर्षणका कारण
न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥२९॥
द्वा. द्वात्रिंशिका ५. २३ ।
द्वा. द्वात्रिंशिका १.४।
१. अन्ये जगत्संकथिका विदग्धा सर्वज्ञवादान् प्रवदन्ति तीर्थ्याः ।
यथार्थनामा तु तवैव वीर सर्वज्ञता सत्यमिदं न रागः ॥ २. न काव्यशक्तेर्न परस्परेर्ण्यया न वीरकीर्तिप्रतिबोधनेच्छया ।
न केवलं श्राद्धतयैव नूयसे गुणज्ञपूज्योऽसि यतोऽयमादरः ।। न रागान्नः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनौ । न चान्येषु द्वैपादपगुणकथाभ्यासखलता ॥ किमु न्यायान्यायाप्रकृतगुणदोषज्ञमनसां । हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ।। युक्त्यनुशासन ६४ । वृहत्स्वयंभू स्तो. ५१; हरिभद्र-लोकतत्त्वनिर्णय ३२, ३३ ।