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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक २४ ] स्याद्वादमञ्जरी २२३ स्तित्वावक्तव्यत्वलक्षणभङ्गत्रयेण सकलसप्तभङ्गथा निर्विरोधता उपलक्षिता । अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेषभङ्गानां च संयोगजत्वेनामीप्वेवान्तर्भावादिति ।। ____नन्वेते धर्माः परस्परं विरुद्धाः तत्कथमेकत्र वस्तुन्येपां समावेशः संभवति इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह उपाधिभेदोपहितम् इति । उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकाराः तेषां भेदो नानात्वम, तेनोपहितमर्पितम् । असत्त्वस्य विशेषणमेतत् । उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । सदवाच्यतयोश्च वचनभेदं कृत्वा योजनीयम । उपाधिभेदोपहिते सती सदवाच्यते अपि न विरुद्धे। ___अयमभिभिप्रायः । परस्परपरिहारेण ये वर्तेते तयोः शीतोष्णवत् सहानवस्थानलक्षणो विरोधः । न चात्रैवम् , सत्त्वासत्त्वयोरितरेतरमविष्वग्भावेन वर्तनात् । न हि घटादौ सत्त्वमसत्त्वं परिहृत्य वर्तते, पररूपेणापि सत्त्वप्रसङ्गात् । तथा च तद्वयतिरिक्तार्थान्तराणां नैरर्थक्यम् , तेनैव त्रिभुवनार्थसाध्यार्थक्रियाणां सिद्धेः। न चासत्त्वं सत्त्वं परिहृत्य वर्तते, स्वरूपेणाप्य सम्पूर्ण सप्तभंगीमें भी कोई विरोध नहीं आता क्योंकि आदिके तीन भंग ही मुख्य भंग हैं, शेष भंग इन्हीं तीनोंके संयोगसे बनते हैं, अतएव उनका इन्होंमें अंतर्भाव हो जाता है। शंका-अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य परस्पर विरुद्ध है, अतएव ये किसी वस्तुमें एक साथ नहीं रह सकते। समाधान-वास्तवमें अस्तित्व आदिमें विरोध नहीं है, क्योंकि अस्तित्व आदि किसी अपेक्षासे स्वीकार किये गये हैं। पदार्थों में अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनेक धर्म विद्यमान हैं। जिस समय हम पदार्थोमें अस्तित्व धर्म सिद्ध करते हैं, उस समय अस्तित्व धर्मकी प्रधानता और अन्य धर्मोकी गौणता रहती है। अतएव अस्तित्व और नास्तित्व धर्ममें परस्पर विरोध नहीं है। इसी तरह अस्तित्व और अवक्तव्य भी अपेक्षाके भेदसे माने गये हैं। इसलिये इनमें विरोध नहीं आता। यहाँ अभिप्राय है-जिस प्रकार उष्णका परिहार करके शीत अस्तिरूप होता है, और शीतका परिहार करके उष्ण अस्ति रूप होता है-अर्थात् शीत और उष्ण एक पदार्थमें एक साथ नहीं रहतेउसी प्रकार जो एक दूसरेका परिहार करके स्वयं अस्तिरूप होता है उसी में सहानवस्थारूप विरोध होता है। लेकिन यहां यह बात नहीं है। क्योंकि सत्त्व अर्थात् अस्तित्व धर्म और असत्त्व अर्थात् नास्तित्व धर्म परस्पर तादात्म्य संबंधको प्राप्त होकर-एक दूसरेका परिहार न करते हुए एक वस्तुमें एक साथ रहते हैं। घट आदि पदार्थमें होनेवाला घट स्वरूपसे सत्त्व ( अस्तित्व ), उस घट आदि पदार्थमें होनेवाले घटभिन्न पदार्थके स्वरूपसे असत्त्व ( नास्तित्व ) का परिहार करके घट आदि पदार्थों में नहीं रहता-अर्थात् दोनों धर्म घट आदि पदार्थमें रहते हैं। क्योंकि यदि घट आदि पदार्थमें होनेवाले घटस्वरूपसे सत्त्वके द्वारा उस घट आदि पदार्थमें होनेवाले घट आदि भिन्न पदार्थके स्वरूपसे असत्त्व (नास्तित्व ) का परिहार किया गया तो घट आदि पदार्थसे भिन्न पदार्थके स्वरूपसे असत्त्वका घट आदि पदार्थमें अभाव हो जानेसे, घट आदि पदार्थके घट आदि पदार्थ-भिन्न पदार्थके स्वरूपसे युक्त बन जाने अथवा पररूपसे भी सद्रूप होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। तथा, घट आदि पदार्थकी घट आदि पदार्थ-भिन्न पदार्थके स्वरूपसे भी सदूपता होनेपर, घट आदि पदार्थ भिन्न पदार्थ निरर्थक बन जायेंगे। क्योंकि तीनों लोकोंके पदार्थके द्वारा सिद्ध की जानेवाली अर्थक्रियाओं की सिद्धि उसी घट पदार्थसे हो जायेगी। तथा असत्त्व-घट आदि पदार्थ-भिन्न पदार्थके स्वरूपसे घट आदि पदार्थका नास्तित्त्व-घट आदि पदार्थमें घट आदि पदार्थके स्वरूपसे होनेवाले सत्त्व ( अस्तित्व ) का परिहार करके घट आदि पदार्थमें नहीं रहता । यदि ऐसा होतो घट आदि पदार्थके स्वरूपसे घट आदि पदार्थमें होनेवाले सत्त्व (अस्तित्व) का घट आदि पदार्थ-भिन्न पदार्थके स्वरूपसे घट आदि पदार्थमें होनेवाले असत्त्व ( नास्तित्व ) द्वारा परिहार किया जानेसे, घट आदि पदार्थमें होनेवाले स्वरूपसे सत्त्व (अस्तित्व) का अभाव हो जानेके कारण, घट आदि पदार्थक स्वरूपसे भी असत्त्व (नास्तित्व) हो जानेका प्रसंग उपस्थित हो जाता है। घट आदि पदार्थ
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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