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________________ २०८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ "आमासु य पक्वासु य विपञ्चमाणासु मंसपेसीसु। आयंतिअमुववाओ भणिओ उ णिगोअजीवाणं ॥१॥ मज्जे महम्मि मंसम्मि णवणीयम्मि चउत्थए। उप्पज्जति अणंता तव्वण्णा तत्थ जंतूणो ॥२॥ मेहणसण्णारूढो णवलक्ख हणेइ सुहमजीवाणं । केवलिणा पण्णत्ता सदहिअव्वा सया कालं ॥३॥ तथाहि "इत्थीजोणीए संभवंति वेइंदिया उ जे जीवा। इक्को व दो व तिण्णि व लक्खपुहत्तं उ उक्कोसं ।।४।। पुरिसेण सह गयाए तेसिं जीवाण होइ उद्दवणं । वेणुगदिट्टतेणं तत्तायसलागणाएणं ॥५॥" संसक्तायां योनौ द्वींद्रिया एते । शुक्रशोणितसंभवास्तु गर्भजपञ्चेन्द्रिया इमे । "पंचिंदिया मणुस्सा एगणरभुत्तणारिगव्मम्मि । उक्कोसं णवलक्खा जायंति एगवेलाए ॥६॥ णवलक्खाणं मज्झे जायइ इक्कस्स दोण्ह य समत्ती । सेसा पुण एमेव य विलयं वच्चंति तत्थेव ॥७॥" ___ "कच्चे, पक्के और अग्निमें पकाये हए मांसकी प्रत्येक अवस्थाओंमें अनन्त निगोद जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है ॥१॥ . मद्य, मधु, मांस और मक्खनमें मद्य, मधु, मांस और मक्खनके रंगके अनंत जीवोंकी उत्पत्ति होती है ॥ २ ॥ केवली भगवान्ने मैथुनके सेवन करने में नौ लाख जीवोंका घात बताया है, इसमें सदा विश्वास करना चाहिये ॥३॥" तथा स्त्रियोंकी योनिमें दो इन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। इन जीवोंकी संख्या एक, दो, तीनसे लगा कर लाखों तक पहुँच जाती है ।। ४ ।। जिस समय पुरुप स्क्रीके साथ संभोग करता है, उस समय जैसे अग्निसे तपाई हुई लोहेकी सलाईको बाँसको नलीमें डालनेसे नलीमें रक्खे हुए तिल भस्म हो जाते हैं वैसे ही पुरुषके संयोगसे योनिमें रहनेवाले सम्पूर्ण जीवोंका नाश हो जाता है ।। ५॥" अव रज और वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले गर्भज पंचेन्द्रिय जीवोंको संख्या कहते हैं पुरुप और स्त्रीके एक बार संयोग करनेवर स्त्रीके गर्भमें अधिकसे अधिक नौ लाख पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं ॥ ६ ॥ इन नौ लाख जीवोंमें एक या दो जीव जीते है, वाकी सब जीव नष्ट हो जाते हैं ॥ ७॥" १. रत्नशेखरसूरिकृतसम्बोधसप्ततिकाया ६६, ६५, ६३ । २. छाया-आमासु च पक्वासु च विपच्यमानासु मांसपेशोपु । आत्यन्तिकमुपपादो भणितस्तु निगोदजीवानाम् ।। मद्ये मधुनि मांसे नवनीते चतुर्थके । उत्पद्यन्तेऽनन्ताः तद्वर्णास्तत्र जंतवः । मैथुनसंज्ञारूढो नवलक्षं हन्ति सूक्ष्मजीवानाम् । केवलिना प्रज्ञप्ताः श्रद्धातव्याः सदाकालम् ॥ स्त्रीयोनी सम्भवन्ति द्वीन्द्रियास्तु ये जीवाः । एको वा द्वौ वा त्रयो वा लक्षपृथुत्वं चोत्कृष्टम् ।। पुरुपेण सह गतायां तेषां जीवानां भवति उद्भवणम् । वेणुकदृष्टान्तेन तप्तायसशलाकाज्ञातेन ॥ पंचेन्द्रिया मनुष्या एकनरभुक्तनारीगर्भे । उत्कृष्टं नवलक्षा जायन्ते एकवेलायाम् ।। नवलक्षाणां मध्ये जायते एकस्य द्वयोर्वा समाप्तिः । शेषाः पुनरेवमेव च विलयं व्रजन्ति तत्रैव ।।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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