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अन्य. यो. व्य. श्लोक १४] स्याद्वादमञ्जरी
१३३ भावाभावात्मकश्च ध्वनिर्वाचक इति । अन्यथा प्रकारान्तरैः पुनर्वाच्यवाचकभावव्यवस्थामातिष्ठमानानां वादिनां प्रतिभैव प्रमाद्यति, न तु तद्भणितयो युक्तिस्पर्शमात्रमपि सहन्ते ।
कानि तानि वाच्यवाचकभावप्रकारान्तराणि परवादिनामिति चेत् , एते ब्रूमः। अपोहे एव शब्दार्थ इत्येके । “अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तुविधिनोन्यते” इति वचनात् । अपरे सामान्यमात्रमेव शब्दानां गोचरः। तस्य क्वचित् प्रतिपन्नस्य, एकरूपतया सर्वत्र संकेतविषयतोपपत्तेः। न पुनर्विशेषाः । तेषामानन्त्यतः कात्स्न्येनोपलव्धुमशक्यतया तद्विषयतानुपपत्तेः । विधिवादिनस्तु विधिरेवं वाक्यार्थः, अप्रवृत्तप्रवर्तनस्वभावत्वात् तस्येत्याचक्षते । विधिरपि तत्तद्वादिविप्रतिपत्त्यानेकप्रकारः। तथाहि । वाक्यरूपः शब्द एव प्रवर्तकत्वाद् विधिरित्येके। तद्वयापारो भावनापरपर्यायो विधिरित्यन्ये । नियोग इत्यपरे । प्रैषादर्य इत्येके। तिरस्कृत
जाननेके लिये स्याद्वादरत्नाकर (२-२) आदि ग्रन्थ देखने चाहिए। अतएव सामान्य-विशेष रूप और भावाभाव रूप वाचक (शब्द) से ही सामान्य-विशेष और भावाभाव रूप वाच्य (अर्थ) का ज्ञान हो सकता है।
(१) बौद्ध लोग अपोह ( इतरव्यावृत्ति-परस्परपरिहार ) को ही शब्दार्थ मानते हैं। कहा भी है। "शब्द और लिंगसे अपोह कहा जाता है, वस्तुकी प्रेरणासे नहीं।" (२) कुछ लोग सामान्य ( जाति ) को ही शब्दका अर्थ मानते हैं। क्योंकि सामान्यके किसी भी स्थानमें रहनेपर वह सब जगह संकेतसे जाना जा सकता है । विशेष अनंत है, इसलिए उनकी एक साथ शब्दसे प्रतीति नहीं हो सकती; अतएव सामान्य हो शब्दका विषय है। (३) विधिवादियोंके अनुसार विधि ही शब्दका अर्थ है, क्योंकि उससे प्रवृत्ति न करनेवाले मनुष्योंकी प्रवृत्ति होती है । (प्रवृत्तिके अनुकूल व्यापारको विधि कहते हैं; विधि, प्रेरणा, प्रवर्तना आदि शब्द एक ही अर्थक द्योतक है ) । विधि अनेक प्रकारकी है। (सामान्यसे लौकिक और वैदिक विधिके दो भेद हैं। अपूर्व, नियम और परिसंख्याके भेदसे विधि तीन प्रकारकी बतायी गई है। उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग
और अधिकार ये अपूर्व विधिके चार भेद हैं)।कोई विधिवादी वाक्यरूप शब्दको विधि कहते हैं। (जेसे 'स्वर्गकी इच्छा रखनेवालेको अग्निहोत्र करना चाहिये')। कोई वाक्यसे उत्पन्न व्यापार (भावना) को विधि कहते हैं। पुरुषकी प्रवृत्तिके अनुकूल प्रवर्तन करनेको व्यापार अथवा भावना कहते हैं। (यह भावना शब्दभावना और अर्थभावनाके भेदसे दो प्रकारकी है । 'स्वर्गकी इच्छा रखनेवालेको यज्ञ करना चाहिये ( यजेत स्वर्गकामः ) आदि वाक्योंमें, ईश्वरके स्वीकार न करनेसे लिङ् (विधिरूप) शब्दके व्यापारको शब्दभावना कहते हैं । शब्दके व्यापारसे यज्ञ करनेवाले पुरुषकी प्रवृत्तिको अर्थभावना कहते हैं । भट्टमीमांसक भावनाको मानते हैं )। कोई नियोगको ही विधि मानते हैं । ( जिसके द्वारा यज्ञमें नियुक्त हो, उसे नियोग कहते हैं। यह नियोग ग्यारह
१. अतद्वयावृत्तिः । यथा विज्ञानवादिबौद्धमते नीलत्वादिधर्मोऽनीलव्यावृत्तिरूपः। २. दिङ्नागः । ३. विधिप्रेरणाप्रवर्तनादिशब्दाभिधेयः प्रवृत्त्यनुकूलव्यापारः।
४. सामान्यतोऽयं विधिद्विविधः लौकिकः वैदिकश्च । प्रकारान्तरेण विधिः त्रिविधः अपूर्वविधिः नियमविधिः संख्याविधिश्च ।
५. यद्वाक्यं विधायकं चोदकं स विधिः यथा 'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः'।
६. भवितुर्भवनानुकूलो भावयितुर्व्यापारविशेषः । यथा यजेतेत्यादौ लिङावाख्यातार्थो भावना। भाट्टमते शाब्दीभावना आर्थीभावना चेति द्विविधा भावना। 'यजेत स्वर्गकामः' इत्यादिवैदिकवाक्ये पुरुषाभावात् शब्दनिष्ठत्वादेव शब्दभावना इत्युच्यते । अर्थभावना तु प्रवृत्त्यादिव्यापाररूपा।।
७. नियुक्तोऽहमनेनाग्निष्टोमादिवाक्येनेति निरवशेषो योगः । एकादशधा नियोगः विद्यानन्दिकृतअष्टसहस्रयां व्याख्यातः पृ. ६ ।
८. न्यक्कारपूर्विका प्रेरणा प्रेषः ।