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अन्य. यो. व्य. श्लोक १४]
स्याद्वादमञ्जरी
अथ स्वाभिमतसामान्यविशेषोभयात्मकवाच्यवाचकभावसमर्थनपुरःसरं तीर्थान्तरीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवाच्यवाचकभावनिरासद्वारेण तेषां प्रतिभावैभवाभावमाह
वेदान्ती-'यह प्रपंच मिथ्या है, क्योंकि मिथ्या प्रतीत होता है, जैसे सीपमें चांदीका ज्ञान मिथ्या प्रतीत होनेसे मिथ्या है' ( अयं प्रपञ्चो मिथ्यारूपः प्रतीयमानत्वात्, यदेवं तदेवं, यथा शुक्तिशकले कलधौतम, तथा चायं तस्मात्तथा )-इस अनुमानसे जगत् मिथ्या सिद्ध होता है। जैन-मिथ्या रूपसे आपका क्या अभिप्राय है? यदि (१) अत्यन्त असत्त्वको मिथ्या कहते हो तो शून्यवादियोंकी असतख्याति; (२) अन्य वस्तुके अन्य रूपमें प्रतिभासित होनेको मिथ्या कहते हो तो नैयायिकोंकी विपरीतख्याति स्वीकार करनी चाहिए। यदि (३) मिथ्या रूपका अर्थ अनिर्वाच्य, अर्थात् निस्स्वभावत्व, करते हो तो "निस्स्वभाव' में स्वभाव शब्दका अर्थ 'भाव' अथवा 'अभाव' करनेपर क्रमसे असत्ख्याति और सत्ख्याति स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि कहो कि ज्ञानके अगोचर होना ही निस्स्वभावत्व है, तो इस जगत्के प्रपंचका ज्ञान नहीं होना चाहिये । तथा प्रपंचके ज्ञानका विषय न होनेसे प्रतीयमानत्व हेतु भी नहीं बन सकता। यदि अर्थप्रपंचके जैसेके तैसे प्रतिभासित होनेको निस्स्वभावत्व कहो तो विपरीतख्याति माननी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त, यह अनुमान प्रत्यक्षसे भी बाधित है । वेदान्ती-हमारा अनुमान प्रत्यक्षसे बाधित नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण केवल सामान्य रूप ही है, वह विधि रूप ही वस्तुओंका ज्ञान करता है, निषेध रूप नहीं। जैन-प्रत्यक्ष केवल सामान्य रूप नहीं हो सकता, क्योंकि किसी वस्तुका निषेध किये बिना उसका विधि रूप ज्ञान होना असंभव है, इसलिये प्रत्यक्षको सामान्यविशेषात्मक स्वीकार करके विधायक और निषेधक दोनों ही स्वीकार करना चाहिये । उक्त अनुमान 'प्रपञ्चो मिथ्या न भवति, असद्विलक्षणत्वात, आत्मवत' इस प्रत्यनुमानसे बाधित भी है। तथा प्रतीयमानत्व हेतु ब्रह्मके साथ व्यभिचारी है।
वेदान्ती-निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे ब्रह्मकी सिद्धि होती है, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सत्ता मात्रको जानता है । निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे ब्रह्मका प्रतिपेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष विधि रूप ही होता है, निषेध रूप नहीं । तथा पदार्थों के भेदको ग्रहण करनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष भी पदार्थोंको सत्ता रूपसे जानता है, इसलिये सविकल्पक प्रत्यक्ष भी ब्रह्मका साधक है । क्योंकि सत्ता परब्रह्म रूप है। 'विधिरेव तत्त्वं प्रमेयत्वात्' इस अनुमानसे भी ब्रह्मकी सिद्धि होती है । इसी तरह आगम आदि भी ब्रह्मके अस्तित्वके साधक हैं । जैन-निश्चयात्मक और विसंवादसे रहित ज्ञान ही प्रमाण होता है, इसलिये निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कहा जा सकता। सविकल्पक प्रत्यक्ष भी समस्त भेदोंसे रहित केवल विधि रूप ब्रह्मको नहीं जान सकता है। क्योंकि जिस प्रकार विशेष रहित सामान्य और सामान्य रहित विशेष वस्तुका ज्ञान असंभव है, उसी तरह विधिके विना प्रतिषेध और प्रतिषेधके विना विधि रूप ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव प्रत्यक्ष भी सामान्य-विशेष रूप हो कर विधि और प्रतिषेध दोनों रूपसे ही पदार्थोंका ज्ञान करता है। 'विधिरेव तत्त्वं प्रमेयत्वात्' अनुमानमें भी प्रमेयत्व हेतु प्रत्यक्षसे बाधित है, क्योंकि प्रत्यक्ष विधि और निषेध दोनों तरहसे पदार्थोंका ज्ञान करता है, यह अनुभवगम्य है। तथा आगम प्रमाण माननेपर वाच्य-वाचक भाव माननेसे द्वैतकी ही सिद्धि होती है।
अब कथंचित् सामान्य और कथंचित् विशेषरूप वाच्य-वाचक भावका समर्थन करके प्रतिवादियोंद्वारा मान्य एकान्त सामान्य और एकान्त विशेष रूप वाच्य-वाचक भावका खंडन करते हुए उनके प्रतिभा वैभव के अभाव को सिद्ध करते हैं