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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १३] स्याद्वादमञ्जरी ११७ आबालगोपालं तथैव प्रतिभासनात् । यच्च निर्विकल्पकं प्रत्यक्षं तदावेदकम् इत्युक्तम् । तदपि न सम्यक् । तस्य प्रामाण्यानभ्युपगमात् । सर्वस्यापि प्रमाणतत्त्वस्य व्यवसायात्मकस्यैवाविसंवादकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेः । सविकल्पकेन तु प्रत्यक्षेण प्रमाणभूतेनैकस्यैव विधिरूपस्य परब्रह्मणः स्वप्नेऽप्यप्रतिभासनात् । यदप्युक्तं "आहुर्विधात प्रत्यक्षम्" इत्यादि। तदपि न पेशलम् । प्रत्यक्षेण ह्यनुवृत्तव्यावृत्ताकारात्मकवस्तुन एव प्रकाशनात् । एतच्च प्रागेव क्षुण्णम् । न ह्यनुस्यूतमेकमखण्डं सत्तामात्रं विशेपनिरपेक्षं सामान्यं प्रतिभासते। येन “यदद्वैतं तद्ब्रह्मणो रूपम्" इत्याधुक्तं शोभेत । विशेपनिरपेक्षस्य सामान्यस्य खरविषाणवदप्रतिभासनात् । तदुक्तम् "निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वेन विशेषास्तद्वदेव हि ॥ ततः सिद्धे सामान्यविशेषात्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य परमब्रह्मणः प्रमाणविषयत्वम् । यच्च प्रमेयत्वादित्यनुमानमुक्तम् , तदप्येतेनैवापास्तं बोद्धव्यम् । पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । यच्च तत्सिद्धौ प्रतिभासमानत्वसाधनमुक्तम् , तदपि साधनाभासत्वेन न प्रकृतसाध्यसाधनायालम् । प्रतिभासमानत्वं हि निखिलभावानां स्वतः परतो वा? न तावत् स्वतः, घटपटमुकुटशकटादीनां स्वतः प्रतिभासमानत्वेनासिद्धेः। परतः प्रतिभासमानत्वं च परं विना नोपपद्यते इति । यच्च परब्रह्मविवर्तवर्तित्वमखिलभेदानामित्युक्तम् । तदप्यन्वेत्रन्वीयमानद्वयाविनाभावित्वेन पुरुषाद्वैतं प्रतिबध्नात्येव । न च घटादीनां प्रत्यक्षसे अद्वत की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह संपूर्ण वस्तुसमूहमें विद्यमान होनेवाले भेदको ही अर्थात् व्यावर्तक विशेषको ही प्रकाशित करता है। इसी प्रकारसे सभी लोगोंको प्रत्यक्षका ज्ञान होता है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अद्वैत रूप ब्रह्मका ज्ञान कराता है, ऐसा जो कहा है, वह भी ठीक नहीं। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्षको प्रमाण रूपसे स्वीकार ही नहीं किया गया। कारण कि व्यवसायात्मक (स्वपरको जानने में साधकतम होनेवाले ) सभी प्रमाण अविसंवादी होनेसे प्रामाण्य माने जाते हैं (और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष स्वपरको जानने में साधकतम नहीं है)। प्रमाणभूत सविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा भी केवल एकरूप विधिरूप परब्रह्म स्वप्नमें भी प्रतिभासित नहीं हो सकता । तथा, "प्रत्यक्ष विधायक (सन्मात्रका ग्राहक) है"-ऐसा जो कहा है, वह भी ठीक नहीं । क्योंकि प्रत्यक्षके द्वारा सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ ही प्रकाशित किया जाता हैइसका पहले ही खण्डन किया जा चुका है। पदार्थोंमें अनुस्यूत, एकमात्र रूप, अखण्ड और सत्तामात्र रूप विशेषकी अपेक्षा न रखनेवाला सामान्य प्रतिभासित नहीं होता जिससे यह कहा जा सके कि "जो अद्वैत है वह ब्रह्मका स्वरूप है।" जिस प्रकार खरविषाण प्रतिभासित नहीं होता उसी तरह विशेष की अपेक्षा न रखनेवाला सामान्य प्रतिभासित नहीं होता। कहा भी है "विशेष रहित सामान्य खरविषाणकी तरह है, और सामान्य रहित होनेसे विशेष भी वैसा ही है।" इस प्रकार यह सिद्ध हो जाने पर कि सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ प्रमाणका विषय होता है, केवल एकरूप परब्रह्म प्रमाणका विषय कैसे बन सकता है ? तथा, 'विधिरेव तत्त्वं प्रमेयत्वात्' यह अनुमान भी इसीसे खंडित हो जाता है। क्योंकि 'विधिरेव तत्त्वं' इस पक्षके प्रत्यक्षसे बाधित होनेके कारण प्रमेयत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है । तथा, "विधिरेव तत्त्वं' इस पक्षकी सिद्धिके लिए जो 'प्रतिभासमानत्व' हेतु दिया गया था, वह साधनाभास होनेसे प्रकृत साध्यकी सिद्धि करने में असमर्थ है। हम पूछते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रतिभास स्वयं होता है, या दूसरेसे ? सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं प्रतिभासित नहीं हो सकते, क्योंकि घट, पट, मुकुट, शकट आदि पदार्थोकी स्वतः प्रतिभासमानत्वके रूपसे सिद्धि नहीं होती। पदार्थोंका दूसरेसे प्रतिभासित होना भी नहीं बन सकता क्योंकि दूसरेसे प्रतिभासित होना दो पदार्थों (द्वैत) के विना संभव नहीं। तथा, 'संपूर्ण पदार्थ १.मीमांसाश्लोकवार्तिक ५ आकृतिवादे १० ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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