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अन्य. यो. व्य. श्लोक ११] स्याद्वादमञ्जरी नैव परितोषो, न पुनस्तद्भुक्त्या । निम्बपत्रकटुकतैलारनालधूमांशादीनां हूयमानद्रव्याणामपि तद्भोज्यत्वप्रसङ्गात् । परमार्थतस्तु तत्तत्सहकारिसमवधानसचिवाराधकानां भक्तिरेव तत्तत्फलं जनयति । अचेतने चिन्तामण्यादौ तथा दर्शनात् । अतिथीनां तु प्रीतिः संस्कारसम्पन्नपक्वान्नादिनापि साध्या । तदर्थं महोक्षमहाजादिप्रकल्पनं निर्विवेकतामेव ख्यापयति ।।
पितॄणां पुनः प्रीतिरनैकान्तिकी। श्राद्धादिविधानेनापि भूयसां सन्तानवृद्धेरनुपलब्धेः । तदविधानेऽपि च केषाश्चिद् गर्दभशूकराजादीनामिव सुतरां तद्दर्शनात् । ततश्च श्राद्धादिविधानं मुग्धजनविप्रतारणमात्रफलमेव । ये हि लोकान्तरं प्राप्तास्ते तावत् स्वकृतसुकृतदुष्कृतकर्मानुसारेण सुरनारकादिगतिषु सुखमसुखं वा भुञ्जाना एवासते ते कथमिव तनयादिभिरावर्जितं पिण्डमुपभोक्त स्पृहयालवोऽपि स्युः। तथा च युष्मद्यूथिनः पठन्ति
"मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत् तृप्तिकारणम् ।
तन्निर्वाणप्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ॥ इति । कथं च श्राद्धविधानाधर्जितं पुण्यं तेषां समीपमुपैतु । तस्य तदन्यकृतत्वात् जडत्वात् निश्चरणत्वाच ॥
अथ तेषामुद्देशेन श्राद्धादिविधानेऽपि पुण्यं दातुरेव तनयादेः स्यादिति चेत् । तन्न । तेन तज्जन्यपुण्यस्य स्वाध्यवसायादुत्तारितत्वात् । एवं च तत्पुण्यं नैकतरस्यापि इति विचाल एव विलोनं त्रिशङ कुज्ञातेन । किन्तु पापानुबन्धिपुण्यत्वात् तत्त्वतः पापमेव। अथ विप्रोपमुक्तं तेभ्य उपतिष्ठत इति चेत्, क इवैतत्प्रत्येतु । विप्राणामेव मेदुरोदरतादर्शनात् । तद्वपुषि च तेषां संक्रमः
मांसादिके उपभोग करनेकी आवश्यकता नहीं रहती। तथा, यदि अग्निमें आहूत मांसादि देवताओंके मुखमें पहुँच सकते हैं, तो होम किये हुए नीमके पत्ते, कड़वा तेल, मांड, धूमांश आदि क्यों नहीं पहुँच सकते ? वास्तवमें सहकारी कारणोंसे युक्त आराधककी भक्ति ही वृष्टि, विजय आदि फल प्रदान करनेमें कारण होती है। जैसे चिन्तामणि रत्नके अचेतन होनेपर भी वह मनुष्यके पुण्योदयके कारण ही फलदायक होता है। तथा, हम संस्कारित और पके हुए अन्न आदिसे अतिथियोंका सत्कार कर उन्हें प्रसन्न कर सकते हैं, तो फिर बैल, बकरे आदिका मांस भक्षण कराना अविवेकताको ही द्योतित करता है।
श्राद्ध करनेसे पितर लोग प्रसन्न होते हैं, यह कथन भी दोषपूर्ण है। क्योंकि श्राद्ध आदिके करनेपर भी कितने ही लोगोंके संतानवृद्धि नहीं होती, और श्राद्ध न करनेपर भी गधे, सूअर, बकरे आदिके अपने आप ही बहुत-सी सन्तान हो जाती हैं। अतएव श्राद्ध आदिका विधान केवल मुर्ख लोगोंके ठगनेके लिये ही किया गया है। जो पितृजन परलोक चले जाते हैं, वे इस भव में किये हुए अपने शुभ और अशुभ कर्मोके अनुसार देव, नरक आदि गतियोंमें सुख, दुखका उपभोग करते बैठते हैं, इसलिये वे अपने पुत्र आदि द्वारा दिये हुए पिण्डका उपभोग करनेकी इच्छा भी कैसे कर सकते हैं ? आपके मतानुयायियोंने कहा भी है
“यदि श्राद्ध मरे हुए प्राणियोंको तृप्तिका कारण हो सकता है, तो दोपकका निर्वाण होनेपर भी तेलको दीपककी ज्योतिके संवर्धनमें कारण मानना चाहिये।"
तथा, इस लोकमें श्राद्ध आदिसे उत्पन्न पुण्य, परलोक सिधारे हुए पितरोंके पास कैसे पहुंच सकता है ? क्योंकि यह पुण्य पितरोंसे भिन्न पुत्र आदिसे किया हुआ रहता है, तथा यह पुण्य जड़ और गतिहीन है।
यदि कहो कि पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध करनेपर दान देनेवाले पुत्र आदिको ही पुण्य होता है, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि श्राद्ध आदिसे उत्पन्न होनेवाले पुण्यसे पुत्रका कोई भी सम्बन्ध नहीं, वह तो निज अध्यवसायजन्य है। अतएव श्राद्धजन्य पुण्य न तो पितरोंका पुण्य कहा जा सकता है, और न पुत्रोंका, इस तरह यह पुण्य त्रिशंकुकी भांति बीच में ही लटका रह जाता है। (वशिष्ठ ऋषिके शापसे त्रिशंकु राजा चांडाल होकर, जब विश्वामित्रकी सहायतासे किये हुए यज्ञके माहात्म्यसे पृथ्वीको छोड़ स्वर्ग जाने लगा, और इन्द्रने कुपित होकर राजाको स्वर्ग में नहीं आने दिया, तब वह पृथिवी और स्वर्गके बीचमें लटका रह गया।
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