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________________ अन्य.यो. व्य. श्लोक ११ स्याद्वादमञ्जरो इत्यादि। यच्च याज्ञिकानां लोकपूज्यत्वोपलम्भादित्युक्तम् । तदप्यसारम् । अबुधा एव पूजयन्ति तान् न तु विविक्तबुद्धयः। अबुधपूज्यता तु न प्रमाणम् । तस्याः सारमेयादिष्वप्युपलम्भात् । यदप्यभिहितं देवतातिथिपितृप्रीतिसंपादकत्वाद् वेदविहिता हिंसा न दोषायेति । तदपि वितथम् । यतो देवानां संकल्पमात्रोपनताभिमताहारपुद्गलरसास्वादसुहितानां वैक्रियशरीरत्वाद् । युष्मदावर्जितजुगुप्सितपशुमांसाद्याहुतिप्रगृहीतौ, इच्छैव दुःसंभवा। औदारिकशरीरिणामेव तदुपादानयोग्यत्वात् । प्रक्षेपाहारस्वीकारे च देवानां मन्त्रमयदेहत्वाभ्युपगमबाधः । न च तेषां मन्त्रमयदेहत्वं भवत्पक्षे न सिद्धम् । “चतुर्थ्यन्तं पदमेव देवता" इति जैमिनिवचनप्रामाण्यात् । तथा च मृगेन्द्रः "शब्देतरत्वे युगपद् भिन्नदेशेषु यदृषु । न सा प्रयाति सांनिध्य मूर्तत्वादस्मदादिवत्" ।। सेति देवता। हूयमानस्य च वस्तुनो भस्मीभावमात्रोपलम्भात् , तदुपभोगजनिता देवानां प्रीतिः प्रलापमात्रम् । अपि च, योऽयं त्रेताग्निः स त्रयस्त्रिंशत्कोटिदेवतानां मुखम् । "अग्निमुखा वै देवाः” इति श्रुतेः। ततश्चोत्तममध्यमाधमदेवानामेकेनैव मुखेन भुञ्जानाना इत्यादि। तथा, आपने जो याज्ञिक पुरुषोंको लोकमें पूज्य वताया, वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि मूर्ख ही याज्ञिकोंकी पूजा करते हैं, पण्डित नहीं। तथा, मूोंके द्वारा याज्ञिकोंका पूजा जाना प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कुत्ते आदि भी लोकमें पूजे जाते हैं। तथा, आपने जो कहा, कि वेदोक्त हिंसा, देवता, अतिथि और पितरोंको प्रसन्न करती है, अतएव वह निर्दोष है. यह कथन भी निस्सार है। क्योंकि देव वैक्रियक शरीरके धारक होते हैं, अतएव वे अपने संकल्प मात्रसे किसी भी इष्ट पदार्थको उत्पन्न कर उसके पुद्गलोंका रसा-स्वादन कर सकते हैं। इसलिये ग्लानि युक्त आप लोगोंको दी हुई पशुके मांस आदिकी आहुति ग्रहण करनेको इच्छा भी वे नहीं कर सकते । औदारिक (स्थूल) शरीरवाले प्राणी ही इस आहुतिको ग्रहण कर सकते हैं। यदि आप देवोंको यज्ञकी अग्निमें आहुतिमें प्रक्षिप्त आहारका भक्षक स्वीकार करेंगे, तो देवोंको मंत्रमय शरीरके धारक नहीं कह सकते । परन्तु आपने देवोंको मंत्रमय शरीरके धारक स्वीकार किया है। जैमिनी ऋषिने कहा भी है-"देवताओंके लिए चतुर्थीका ही प्रयोग करना चाहिये ।" ( पूर्व मीमांसकोंने ईश्वरका अस्तित्व नहीं माना है। उनके मतमें आहुति दिये जानेवाले देवताओंको छोड़ कर दूसरे देवोंका अस्तित्व नहीं है ) । मृगेन्द्रने भी कहा है "यदि देवता मंत्रमय शरीरके धारक न होकर हम लोंगोंकी तरह मूर्त शरीरके धारक हों, तो जैसे हम एक साथ बहुत स्थानोंमें नहीं जा सकते, उसी प्रकार देवता भी एक साथ सब यज्ञोंमें उपस्थित नहीं हो सकेंगे।" उपर्युक्त श्लोकमें 'सा' का प्रयोग देवताके अर्थमें हुआ है। होम किये हुए पदार्थ भस्म हो जाते हैं, और उन पदार्थोके उपभोगसे देव प्रसन्न होते हैं, यह कथन प्रलापमात्र है। तथा, आपने त्रेता अग्नि ( दक्षिण अग्नि, आहवनीय अग्नि और गार्हपत्य अग्नि ) को तैंतीस करोड़ देवताओंका मुख स्वीकार किया है। श्रुतिमें १. अथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव । छान्दोग्य. उ. ८-५-१: मण्डक उ. १-२-६: बहदारण्यक उ० ३-१; भ० गीता ४-३३; महाभारते शांतिपर्वणि । २. अष्टगुणश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविविधकरणं विक्रिया सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियकं । ३. उदारं स्थूलं, उदारं प्रयोजनं अस्येति औदारिकं । ४. दक्षिणाग्निः, आहवनीयः, गार्हपत्य इति त्रयोऽग्नयः । 'अग्नित्रयमिदं त्रेता' इत्यमरः । ५. आश्व. गृ. सू. अ.४
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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