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अन्य. यो. व्य. श्लोक १०] स्याद्वादमञ्जरी मिट्टीके ढेलेको समान मत मानो। ये सव मिथ्या उत्तर है, क्योंकि दृष्टान्तमें सब धर्मोकी समानता नहीं देखी जाती; उसमें सिर्फ साध्य और साधनकी समानता देखी जाती है। विकल्पसमामें जो अनेक धर्मोंका व्यभिचार बतलाया है, उससे वादीका अनुमान खण्डित नहीं होता, क्योंकि साध्य-धर्मके सिवाय अन्य धर्मोंके साथ यदि साधनकी व्याप्ति न मिले, तो इससे साधनको व्यभिचारी नहीं कह सकते । हाँ, यदि साध्य-धर्मके साथ व्याप्ति न मिले, तो व्यभिचारी हो सकता है। दूसरे धर्मोके साथ व्यभिचार आनेसे साध्यके साथ भी व्यभिचारकी कल्पना व्यर्थ है। धूमकी यदि पत्थरके साथ व्याप्ति नहीं मिलती, तो यह नहीं कहा जा सकता कि धूमकी व्याप्ति, अग्निके साथ भी नहीं है। (९-१०) प्राप्ति और अप्राप्तिका प्रश्न उठाकर सच्चे हेतुको खण्डित प्रतिपादन करना, प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा जाति है। जैसे, हेतु साध्यके पास रहकर साध्यको सिद्ध करता है, या दूर रहकर ? यदि पास रहकर तो कैसे ज्ञात होगा कि यह साध्य है और यह हेतु है (प्राप्तिसमा)। यदि दूर रह कर तो यह साधन अमुक धर्मकी ही सिद्धि करता है, दूसरेकी नहीं यह कैसे ज्ञात हो (अप्राप्तिसमा)। ये असदुत्तर हैं, क्यों कि धुंआ आदि पास रह कर अग्निकी सिद्धि करते हैं तथा दूर रह कर भी पूर्वचर आदि साधन, साध्यकी सिद्धि करते हैं। जिनमें अविनाभाव सम्बन्ध है, उन्हीं में साध्य-साधकता हो सकती है, न कि सबमें । (११) जैसे साध्यके लिये साधनकी जरूरत है, उसी प्रकार दृष्टान्त के लिए भी साधनकी जरूरत है, यह कथन प्रसंगसमा जाति है। दृष्टान्तमें वादी और प्रतिवादीको विवाद नहीं होता, अतएव उसके लिए साधनको आवश्यकता प्रतिपादन करना व्यर्थ है, अन्यथा वह दृष्टान्त ही न कहलायगा । (१२) विना व्याप्तिके केवल दूसरा दृष्टान्त देकर दोष लगाना प्रतिदृष्टान्तसमा जाति है। जैसे घड़ेके दृष्टान्तसे यदि शब्द अनित्य है, तो आकाशके दृष्टांतसे वह नित्य कहलाये । प्रतिदृष्टान्त देनेवाले ने कोई हेतु नहीं दिया है जिससे यह कहा जाय कि दृष्टान्त साधक नहीं है-प्रतिदृष्टान्त साधक है। किन्तु विना हेतु के खण्डनमण्डन कैसे हो सकता है ? (१३) उत्पत्तिके पहले, कारणका अभाव दिखला कर मिथ्या खण्डन करना अनुत्पत्तिसमा हैं। जैसे उत्पत्तिके पहले शब्द कृत्रिम है, या नहीं? यदि है तो उत्पत्तिके पहले मौजूद होनेसे शब्द नित्य हो गया; यदि नहीं है तो हेतु आश्रयासिद्ध हो गया। यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि उत्पत्तिके पहले शब्द ही नहीं था, फिर कृत्रिम-अकृत्रिमका प्रश्न ही क्या? (१४) व्याप्तिमें मिथ्या सन्देह प्रतिपादन कर वादीके पक्षका खण्डन करना, संशयसमा जाति है। जैसे, कार्य होनेसे शब्द नित्य है-यहाँ यह कहना कि इन्द्रियका विषय होनेसे शब्दकी अनित्यतामें सन्देह है, क्योंकि इन्द्रियोंके विषय नित्य भी होते हैं (जैसे गोत्व घटत्व आदि सामान्य ) और अनित्य भी (जैसे घट, पट आदि)। यह संशय ठीक नहीं, क्योंकि जब तक कार्यत्व और अनित्यत्वकी व्याप्ति खण्डित न की जाय, तब तक वहाँ संशयका प्रवेश नहीं हो सकता। कार्यत्वकी व्याप्ति यदि नित्यत्व और अनित्यत्व दोनोंके साथ हो तो संशय हो सकता है, अन्यथा नहीं। लेकिन कार्यत्वकी व्याप्ति दोनोंके साथ नहीं हो सकती। (१५) मिथ्या व्याप्तिके ऊपर अवलम्बित दूसरे अनुमानसे दोष देना, प्रकरणसमा जाति है। जैसे, यदि अनित्य ( घट) साधर्म्यसे कार्यत्व हेतु शब्दकी अनित्यता सिद्ध करता है, तो गोत्व आदि सामान्यके साधर्म्यसे ऐन्द्रियकत्व ( इन्द्रियका विषय होना ) हेतु नित्यताको सिद्ध करे। अतएव दोनों पक्ष समान कहलाये। यह असत्य उत्तर है, क्योंकि अनित्य और कार्यत्वकी व्याप्ति है, लेकिन ऐन्द्रियकत्व और नित्यत्वकी व्याप्ति नहीं। (१६) भूत आदि कालको असिद्धि प्रतिपादन कर हेतु मात्रको हेतु कहना, अहेतुसमा जाति है। जैसे, हेतु साध्यके पहले होता है, या पीछे होता है, या साथ होता है ? पहले तो हो नहीं सकता, क्योंकि जब साध्य ही नहीं, तब साधक किस का? न पीछे हो सकता है, क्योंकि जब साध्य ही नहीं रहा, तब वह सिद्ध किसे करेगा? अथवा जिस समय साध्य था, उस समय यदि साधन नहीं था, तो वह साध्य कैसे कहलायेगा? दोनों एक साथ भी नहीं बन सकते, क्योंकि उस समय यह सन्देह हो सकता है कि कौन साध्य है, कौन साधक है ? जैसे, विंध्याचल से हिमालयकी और हिमालयसे विध्याचलकी सिद्धि करना अनुचित है, उसी तरह एक कालमें होनेवाली वस्तुओंको साध्य-साधक ठहराना अनुचित है। यह असत्य उत्तर है, क्योंकि इस प्रकार त्रिकालकी असिद्धि प्रतिपादन करनेसे जिस हेतुके द्वारा जातिवादीने हेतुको अहेतु ठहराया है, वह हेतु (जातिवादीका त्रिकालसिद्धि हेतु ) भी अहेतु ठहर