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अन्य. यो. व्य, श्लोक १०] स्याद्वादमञ्जरी चेति । तत्र साधारणे शब्दे प्रयुक्ते वक्तुरभिप्रेतादर्थादर्थान्तरकल्पनया तन्निषेधो वाक्छलम् । यथा नवकम्बलोऽयं माणवक इति नूतनविवक्षया कथिते, परः संख्यामारोप्य निपेधति कुतोऽ स्य नव कम्बलाः इति । संभावनयातिप्रसङ्गिनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतुत्वारोपणेन तन्निषेधः सामान्यछलम् । यथा अहो नु खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इति ब्राह्मणस्तुतिप्रसङ्गे, कश्चिद् वदति सम्भवति ब्राह्मणे, विद्याचरणसम्पदिति, तत् छलवादी ब्राह्मणत्वस्य हेतुतामारोप्य निराकुर्वन्नभियुङ्क्ते यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपद् भवति, व्रात्ये'ऽपि सा भवेद्, व्रात्योऽपि ब्राह्मण एवेति । औपचारिके प्रयोगे मुख्यप्रतिषेधेन प्रत्यवस्थानम् उपचारछलम् । यथा मञ्चाः क्रोशन्तीत्युक्ते, परः प्रत्यवतिष्ठते कथमचेतनाः मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्तीति ।
तथा सम्यगृहेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते, झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जातिः दूषणाभास इत्यर्थः । सा च चतुर्विंशतिभेदा। साध
ादिप्रत्यवस्थानभेदेन यथा “साधर्म्यवैधोत्कर्षाऽपकर्षवाऽवण्य विकल्पसाध्यप्राप्त्यप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्ताऽनुत्पत्तिसंशयप्रकरणहेत्वर्थापत्त्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः" ॥२
तत्र साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिर्भवति । अनित्यः शब्दः, कृतकत्वाद्, घटवदिति प्रयोगे कृते साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम् नित्य शब्दो, निरवयवत्वात् , आकाशवत् । न चास्ति विशेषहेतुः घटसाधात् कृतकत्वादनित्यः शब्दः, न पुनराकाश
बदल कर वादीके वचनोंके निषेध करनेको छल कहते हैं। यह छल वाक्, सामान्य और उपचारके भेदसे तीन प्रकारका है। (१) वक्ताके किसी साधारण शब्दके प्रयोग करनेपर उसके विवक्षित अर्थको जान बूझकर उपेक्षा कर अर्थान्तरकी कल्पना करके वक्ताके वचनके निषेध करनेको वाक्छल कहते हैं। जैसे वक्ताने कहा कि 'नवकम्बलोऽयं माणवकः'-यहाँ हम जानते हैं, कि 'नव' कहनेसे वक्ताका अभिप्राय 'नूतनसे' है फिर भी दुर्भावनासे उसके वचनोंका निषेध करनेके लिये हम 'नव' शब्दका अर्थ 'नौ' करके वक्तासे पूछते हैं कि इस माणवकके पास नौ कम्बल कहाँ हैं ? (२) सम्भावना मात्रसे व्यापक सामान्य का कथन करने पर सामान्यके ऊपर हेतुका आरोप करके सामान्यका निषेध करना सामान्यछल है। जैसे 'आश्चर्य है कि यह वाह्मण विद्या और आचरणसे युक्त है, यह कह कर कोई पुरुष ब्राह्मणकी स्तुति करता है । इस पर कोई दूसरा पुरुप कहता है कि विद्या और आचरणका तो ब्राह्मणमें होना स्वाभाविक है। यहाँ यद्यपि ब्राह्मणत्वका सम्भावना मात्रसे कथन किया गया है, फिर भी छलवादी ब्राह्मणमें विद्या और आचरणके होनेके सामान्य नियम बना कर कहता है कि यदि ब्राह्मणमें विद्या और आचरण का होना स्वाभाविक है, तो विद्या और आचरण व्रात्य (पतित ) ब्राह्मणमें भी होना चाहिये, क्योंकि व्रात्य ब्राह्मण भो ब्राह्मण ही है । ( ३ ) उपचार अर्थमें मुख्य अर्थका निपेध करके वक्ताके वचनोंका निपेध करना, उपचारछल है। जैसे कोई कहे कि मंच रोते हैं, तो छलवादी उत्तर देता है कि कहीं मंच जैसे अचेतन पदार्थ भी रो सकते हैं, अतएव कहना चाहिये कि मंचपर बैठे हुए आदमी रोते हैं।
वादीके द्वारा सम्यक् हेतु अथवा हेत्वाभासके प्रयोग करनेपर, वादीके हेतुकी सदोपताकी विना परीक्षा किये हुए, हेतुके समान मालूम होनेवाला शीघ्रतासे कुछ भी कह देना जाति है। अर्थात् दूपणाभास यह जाति "साधर्म्य, वैधर्म्य, उत्कर्ष, अपकर्ष, वर्ण्य, अवर्ण्य, विकल्प, साध्य, प्राप्ति, अप्राप्ति, प्रसंग, प्रतिदृष्टांत, अनुत्पत्ति, संशय, प्रकरण, हेतु, अर्थापत्ति, अविशेप, उपपत्ति, उपलब्धि, अनुपलब्धि, नित्य, अनित्य और कार्यसम" के भेदसे चौबीस प्रकारकी है।
(१) साधर्म्यसे उपसंहार करने पर दृष्टांत की समानता दिखला कर साध्यसे विपरीत कथन करनेको साधर्म्यसमा जाति कहते हैं । जैसे, वादीने कहा, 'शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है; जो कृतक होता है, वह
१. सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविहिताः । २. गौतमसूत्रे ५-१-१ । ११