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________________ किरातार्जुनीयम् सत्यवादिनः भवतः चेतसि पीडा न भवति किम् ? अपूर्वा खलु ते सत्यवादिता ( सत्यप्रियता)! अद्यापि सत्यमेव रक्ष्यते न तु भ्रातरः। स०-लोहितं चन्दनं लोहितचन्दनम् (कर्मधार), उचितं लोहित-चन्दनं यस्य सः लोहितचन्दनोचितः (बहु०)। 'वाहिताग्न्यादिषु' से उचित पद का प्रयोग अन्त में हुआ। महान् रथः यस्य सः महारथः (बहु०)। वृक्रस्य उदरमिव उदरं यस्य सः वृकोदरः (बहु०)। रेणुभिः रूषितः रेणुरूषितः (तृ० तत्पु०)। पादाभ्यामतति इति पदातिः (उपपद समास)। गिरिषु अन्तः इति अन्तगिरि (अव्ययीभाव समास)। सत्यं धनं यस्य सः सत्यधनः तस्य सत्यधनस्य (बहु०)। व्या०-परिभ्रमन्-परि+भ्रम् + शत, प्रथमा एकवचन। दुनोतिदु+ लट् लकार, अन्यपुरुष, एकवचन । टि०-(१) 'सत्यधनस्य' पद का प्रयोग व्यंग्यपूर्ण है। इस व्यंग्योक्ति के द्वारा द्रौपदी कहना चाहती है कि आपने सत्य के चक्कर में पड़कर अपनी और हम सब लोगों की यह दुर्दशा कर डाली है और आश्चर्य तथा दुःख की बात तो यह है कि अब भी आप उस अनिष्टकारी सत्य के ही पीछे पड़े हुए हैं-सत्य की ही रक्षा कर रहे हैं, हम लोगों की नहीं। (२) इस श्लोक में भीम की पूर्व दशा और वर्तमान दशा में वैषम्य का निरूपण सुन्दर ढंग से किया गया है। शरीर में लाल चन्दन लगाने वाला तथा विशाल रथ में बैठकर चलने वाला भीम अब धूलि से व्याप्त होकर पैदल पर्वतों में भटक रहा है । वृकोदर (भेड़िए के पेट के समान पेट वाला-भेड़िए के समान बहुत भक्षण करने वाला) पद का प्रयोग करके द्रौपदी युधिष्ठिर को यह बतलाना चाहती है. कि अब भीम को भर पेट (पेटभर) खाना भी नहीं मिल रहा है। इससे अधिक दुर्दशा और क्या हो सकती है ? (३) 'लोहित' शब्द का अर्थ रुधिर (रन, खून) भी होता है और 'महारथ' का अर्थ 'दस हजार धनुर्धारियों के साथ अकेला युद्ध करने वाला' भी होता है। 'लोहितचन्दनोचितः' और 'महारथः' पदों का प्रयोग करके द्रौपदी युधिष्ठिर का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहती है कि शत्रुओं का वध करके उनके रुघिर से जिसका शरीर रंजित होने योग्य है;
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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