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________________ प्रथम सर्गः भवन्तं त्वां उदीरित उद्दीपितो मन्युः क्रोधः । शुष्कं नीरसम् 'शुषः कः' इति निष्ठातकारस्य ककारः । शमी चासौ तरुश्चेति विशेषणसमासः । तम् शमीतरम् शमीवृक्षम् । शमीग्रहणं शीघ्रज्वलनस्वभावात् कृतम् । उच्छिखः उद्गतज्वालः । 'घृणिज्वाले अपि शिखें' इत्यमरः । अग्निरिव वह्निरिव कथं न ज्वलयति । ज्वलयितुमुचितमित्यर्थः । 'मिता ह्रस्वः' इति ह्रस्वः ।। ३२ ॥ अवन्ध्यकोपस्य विहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः। अमर्पशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्दैन न विद्विषादरः॥३३॥ अ०-अवन्ध्यकोपस्य आपदां विहन्तुः देहिनः स्वयम् वश्याः भवन्ति । अमर्षशून्येन जन्तुना जातहार्दैन (सता ) जनस्य आदरः न, विद्विपा (सता) दरः न । श०-अवन्ध्यकोपस्य = अव्यर्थ (सफल, अमोघ ) क्रोध वाले, व्यर्य (निष्फल) नहीं होता है क्रोध जिसका । आपदा विहन्तुः = आपत्तियों (विपत्तियों, क्लेशों) का विनाश करने वाले ( विनाशक, निवारक, दूर करने वाले) के । देहिनः = शरीरधारी, प्राणी। स्वयमेव = स्वयं (स्वतः, अपने आप) ही। वश्याः भवन्ति = वश में (वशीभूत, अधीन, अधिकार में) हो जाते हैं। अमर्षशून्येन = क्रोधरहित । जन्तुना = प्राणी से, पुरुष से | जातहार्दैन = मित्रता होने पर, स्नेह (हार्द = स्नेह ) होने पर, अनुराग से युक्त होने पर । जनस्य = लोगों का। आदरः = सम्मान, सत्कार । न = नहीं (होता है)। विद्विषा = शत्रु होने पर, शत्रता (विरोध ) होने पर । दरः = भय । न = नहीं (होता है)। ____ अनु०-प्राणी स्वयं ही उस व्यक्ति के वश में हो जाते हैं, जिसका क्रोध व्यर्य (निप्फल) नहीं होता है और जो आपत्तियों का विनाश करता है। क्रोधरहित व्यक्ति के स्नेह (अनुराग) से युक्त होने पर लोगों के द्वारा उसका आदर नहीं होता और शत्रुता से युक्त होने पर लोगों को उसका भय भी नहीं होता (क्रोधहीन: व्यक्ति के मित्र उसका सम्मान नहीं करते और शत्र उससे डरते नहीं)।
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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