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________________ प्रथम सर्गः बहुवचन। सम्पदः-सम् + पद्+ क्विप , प्रथमा बहुवचन | परिबृंहितायती: तथा अर्थसम्पदः द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के रूप हैं। टि.-(१) दुर्योधन भली-भाँति जानता है कि फिस कार्य की सिद्धि के लिए किस उपाय का प्रयोग करना चाहिए। उपायों का समुचित प्रयोग ही उपायों का सत्कार है। उपायों के समुचित प्रयोग के कारण ही उसकी सम्पत्ति दिन दूनी और गत चौगुनी बढ़ती जा रही है। गुतचर यह भी संकेत करना चाहता है कि दुर्योधन को पराजित करना सरल कार्य न होगा। वह निरन्तर अधिक ही अधिक शक्तिशाली होता जा रहा है। अतः अब उसकी उपेक्षा करना उचित न होगा। उसके पराभव के लिए शीघ्र ही प्रयत्न प्रारम्भ कर देना चाहिए। (२) उत्प्रेक्षा अलंकार ।। घण्टापथ-अनारतमिति । तेन राशा पदेषु उपादेयवस्तुषु । 'पदं व्यवसितप्राणस्थानलक्ष्माधिवस्तुषु' इत्यमरः। सम्यक् असङ्कीर्णमव्यस्तं च विभज्य विविच्य । विनियोगसत्क्रियाः विनियोग एव सत्क्रियानुग्रहः सत्कार इति यावत् । यासां ताः। लम्भिताः स्थानेषु सम्यक् प्रयुक्ता इत्यर्थः। उयायविशेषणं वा । उपायाः सामादयः। सङ्घष परस्परस्पर्धाम् उपेत्येवेत्युत्प्रेक्षा। परिहितायतीः प्रचितोत्तरकालाः। स्थिरा इत्यर्थः। अर्थसम्पदः अनारतमजस्त्रं फलन्ति । प्रसवत इत्यर्थः ॥ १५ ॥ अनेकराजन्यरथाश्वसङ्कुलं तदीयमास्थाननिकेतनाजिरम् । नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं नृपोपायनदन्तिनां मदः॥१६॥ अ०-नृपोपायनदन्तिनां अयुग्मच्छदगन्धिः मदः अनेकराजन्यरथास्वसङ्कलं तदीयम् आस्थाननिकेतनाजिरं भृशम् आर्द्रतां नयति । श०-नृपोपायनदन्तिनां = राजाओं के द्वारा उपहार ( भेट) में दिए गा। हाथियों का । अयुग्मच्छदगन्धिः = सप्तपर्ण नामक वृक्ष के पुष्प के समान गन्धवाला । मदः = मदजल, (मस्त, मत्त) हाथियों के गण्डस्थल (कनपटी. कपोल) से निकलने वाला (वहने वाला) जल (रस, द्रवविशेष, प्रवाहशील
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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